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________________ श्रीमवचनसार भाषाका | [ १३१ उनके दर्शन ज्ञानकी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थ ret अनंत पर्यायोंके साथ उस ज्ञानदर्शनमें प्रतिबिंबित होते हैं । इसीसे व्यवहार में ऐसा कहते हैं कि केवलज्ञानी सर्वको पूर्णपने देखते जानते हैं । श्री समयसागरजी में भी आचार्यने ऐसा ही स्वरूप बताया है: ण विपरिणम ण गिण्हइ उपज्नई ण प द्रव्जपज्जाए । गाणी जाणतो चिह्न पुग्गालक्रम्मं अणयनिहं || अर्थात् ज्ञानी आत्मा अनेक प्रकार पुद्गल कर्मको जानता हुआ भी पुद्गल कर्मरूप न परिणमत्ता है न उसे ग्रहण करता है और न उस yeast अवस्थारूप आप उपजता है | ज्ञानी आत्मा सर्व ज्ञेयोंको जानते हैं तथापि अपने आत्मीक स्वभावमें रहते हैं ऐसी आत्माकी अपूर्व शक्ति मानकर दमको उचित है कि शुद्ध केवलज्ञानकी प्राप्तिके लिये शुद्ध पयोगकी भावना करें | यही भावना परम हितकारिणी तथा सुख प्रदान करनेवाली है । इसतरह ज्ञान ज्ञेयरूपसे नहीं परिणमन करता है, इत्यादि व्याख्यान करते हुए तीसरे स्थल में पांच गाथाए पूर्ण हुई। Search - मागे कहते हैं कि जैसे मव भावरण ि सर्वको प्रगट करनेवाले लक्षणको धारनेवाले फेवलज्ञानसे आत्माका ज्ञान होता है वैसे आवरण सहित एक देश प्रगट करनेवाले लक्षणको धरनेवाले तथा केवलज्ञानकी उत्पत्तिका बीन रूप स्वसंवेदन ज्ञानमई भाव श्रुतज्ञान से भी आत्माका ज्ञान होता है व्यर्थात् जैसे केवलज्ञानसे आत्माका जानपना होता है वैसा श्रुतज्ञानसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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