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________________ M ARA श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। . [१२९ सुख वीर्य बादि शुद्ध गुगोंके भीतर विलास करते हुए अपने गुणों को कभी त्यागते नहीं-कमी भी गुणहीन होते नहीं और न काम क्रोधादि विकारो भायोंको ग्रहण करते हैं, न पर वस्तुको पकड़ते हैं, न अपने स्वाभाविक परिणमनको छोड़कर किसी पर द्रव्यकी अवस्थारून परिणमन करते हैं वे प्रभु तो अपने आत्माके द्वारा अपने आत्मामें अपने आत्मा हीको अनुभव करते हैं। उसीके ज्ञानामृतका स्वाद लेते हैं क्योंकि कहा भी है:उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथाचमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहशत पूर्णस्य सन्धारणमात्मनी ॥४३॥ (समपसारकलश अमृत०) भावार्थ-जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको समेटकर अपने . आपमें लवलीन होनाता है तब मानो आत्माने जो कुछ त्यागने योग्य था उसको त्याग दिया और को कुछ ग्रहण करने योग्य था उसको ग्रहण कर लिया । वास्तवमें केवलज्ञानी आत्मा अपने स्वरूपमें उसी तरह निश्चल हैं जैसे निर्मल स्फटिश मणि अपने स्वभाव निश्चल है। केवलज्ञानी भगवानले कोई इच्छा या विकल्प नहीं पैदा होता है कि हम किसी वस्तुको ग्रहण करें या छोड़ें या किसी रूप परिणमत्त फरें या हम किलो वस्तुको देखें, जानें । जैसे दीपककी शिखा पवन संचार रहित दशामें निश्च टरूपसे बिना किसी विकारके प्रकाशमान रहती है यह नहीं विकल्स करती है कि मैं किसीको प्रकाश करू, न अपने क्षेत्रको छोड़कर कहीं जाती है तथापि अपने स्वभावसे ही घट पट आदि पदार्थोझो व शुभ अशुभ रूपोंको जैसे वे हैं तैसे विना अपनेमें कोई विकार
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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