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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका । १२७ ] निरंतर करनी योग्य है । यही भावना मुमुक्षु मात्मार्थी जीवके यहां भी आनन्द प्रदान करती है और भविष्य में भी अनंत सुखकी प्रकटताकी कारण है । उत्पादिका - भागे यह समझाते हैं कि यद्यपि व्यवहार से ज्ञानीका ज्ञेय पदार्थों के साथ ग्राह्य ग्राहक अर्थात् ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध है तथापि यसे स्पर्श आदिका सम्बन्ध नहीं है इस लिये ज्ञानका ज्ञेय पदार्थोके साथ भिज्ञपना ही है । गेहदिदि, ण परं परिणमादे केवली भगवं । पेच्छदि मंगोलो, जाणदि सव्वं णिरवसेसं ॥ ३२ ॥ गृणाति नेव न मुञ्चति न परं परिणमति केवली भगवान् । पश्य समन्तनः स जानाति सर्व निरोपं ॥ ३२ ॥ सामान्यार्थ - केवली भगवान पर द्रव्यको न तो ग्रहण करते हैं, और न छोड़ते हैं और न पर द्रव्यरूप आप परिणमन करते हैं किन्तु वह बिना किसी ज्ञेयको शेष रक्खे सर्व ज्ञेयों को सर्व तरहसे देखने जानते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( केवली भगवं ) केवली भगवान सर्वज्ञ (परं) पर द्रव्यरूप शेष पदार्थको (णेव गिण्हदि ) न तो ग्रहण करते हैं; ( ण मुंचति ) न छोड़ते हैं (ज परिणमदि ) न उसरूप परिणमन करते हैं। इससे जाना जाता है कि उनकी परद्रव्यसे भिन्नता ही है । तब क्या वे परद्रव्यको
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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