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________________ १२६] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । जगत, एक ही द्रव्य नहीं है किन्तु जगत अनंत द्रव्योंचा समुदाय है जिनमें अनन्त ही आत्मा है और अनन्न ही अनात्मा हैं ज्ञानकी शक्ति आत्मामें ही है ज्ञानका म्वभाव दापकके समान स्वपर प्रकाशक है । ज्ञान अपनेको भी जानता है और परको भी जानता है । यदि स्वपरको न जाने तो ज्ञ नका ज्ञ नपना ही नहीं रहे। इसलिये निर्मल ज्ञान मापने आधारभूत मात्माके तथा अपने ही साथ रहनेवाले अन्य अनन्त गुणोंको व उनकी अनन्त पचोंको तथा अन्य आत्माओंको और उनके गुण पर्थयोंको तथा मतगण पर्याय सहित अनंत जनात्मानको एक साथ जानता है अर्थात उनके सर्व आकार, या विशेष ज्ञानमें पृथक् २ झलकते हैं तब ऐसा कहना कुछ भी अनुचित नहीं है कि ज्ञान ज्ञेयों में फैल गया, चला गया या व्याप गया तथा ज्ञेय ज्ञानमें फैल गये, चले गये या व्याप गये । जुद्री र सत्ताको रखते हुए द परस्पर ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्धसे केवलज्ञानमें सर्व पर्याय तिष्ठते हैं ऐसा कहनेका व्यवहार है । तात्पर्य यह है कि केवल ज्ञानकी ऐसी अपूर्व शक्ति है कि आप अन्य पदार्थ रूप न होता हुआ भी सर्वको जैसाका तैसा मानता है उनके शुभ अशुभ हीन उच्च परिणमनमें रागद्वेष नहीं करता है । दर्पणके समान योतरागो रहता है तथा कोई वात ज्ञानसे वाहरकी नहीं रह जाती है इसीसे जैसे रागद्वेय जनित माकुलता नहीं है वेसे अज्ञान ननित आकुबता नहीं है। इसी कारणसे केवलज्ञान उपादेय है-ग्रहण करने अथवा प्रगट करने योग्य है अतएव सर्व प्रपंच छोड़ शांत चित्त हो केवलज्ञान के कारणभूत स्वसंवेदनमयी शुद्धोपयोगकी भावना.
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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