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________________ Sawanamamimamiww १०२] श्रीप्रवचनसार भाषाका । . . - आत्माको भी सर्वव्यापक मानते हैं उनके लिये यह कहा गया कि जब ज्ञान विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है तब ज्ञानका धनी आत्मा भी विषयकी अपेक्षा सर्वव्यापक है । परन्तु प्रदेशोंकी अपेक्षा मात्मा असंख्यात प्रदेशोंसे कमती बढ़ती नहीं होता-उसी प्रमाण उसका ज्ञान गुण रहता है । यद्यपि आत्मा निश्चयसे असंख्यात प्रदेशी है तथापि किसी भी शरीरमें रहा हुआ संकोचरूप शरीरके प्रमाण रहता है। मोक्ष अवस्थामें भी अतिम शरीरसे किंचित कम आकार रखता हुमा सदा स्थिर रहता है। इस तरहका पुरुषाकार होनेपर भी वह आत्मा ज्ञान गुणकी अपेक्षा सर्वको जानता है । आत्माका यह स्वभाव जैनाचार्योंने ऐसा बताया है नो स्वरूप अनुभव किये मानेपर ठोक जंचता है क्योंकि हम बाप सर्व अलग २ आत्मा हैं, यदि भिन्न २ न होते तो एकका ज्ञान, सुख व दुःख दुसरेको हो जाता, जब एक सुखी होते सर्व मुखी होते, जव एक दुःखी होते सर्व दुःखी होते, सो यह बात प्रत्यक्षसे विरोधरूप है । हरएक अलग १ मरता जीता व सुख दुःख उठाता है । भात्मा भिन्न होनेपर भी शरीर प्रमाण किस तरह है इसका समाधान यह है, कि यदि मात्मा शरीर प्रमाण न होकर लोक प्रमाण होता तो जैसे शरीर सम्बन्धी सुख दुःखका भोग होता है वैसे शरीरसे बाहरके पदार्थोसे भी सुख दुःखका अनुभव होता-सो ऐसा होता नहीं है। अपने शरीरके भीतर ही जो कुछ दुःख सुखका कारण होता है उसहीको आत्मा अनुभव करता है इससे शरीरसे अधिक फैला हुमा आत्मा नहीं है । यदि शरीरमें सर्व ठिकाने
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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