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________________ न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां चतुर्थः परिच्छेदः । सामान्यभेदौ, सामान्य के भेदঘাগঞ্জ ব্রহ্মা মিত্রাক্ষভা। ৪। अर्थ- सामान्य के दो भेद हैं। तिर्यक्सामान्य और ऊर्ध्वतासामान्य ।। ३ ॥ संस्कृतार्थ-तिर्यक्सामान्यम् ऊर्ध्वतासामान्यञ्चेति सामान्यस्य द्वौ भेदी स्तः ।। ३ ॥ तिर्यक्सामान्य का स्वरूप वा दृष्टान्तঝাঘহিঙ্গাছিম ভাজি অল । ৪। अर्थ- समान परिणमन को तिर्यक्सामान्य कहते हैं। जैसे-खांडी, मुण्डी और शाबली आदि गायों में गोत्व सदृशपरिणमन है ॥ ४ ॥ संस्कृतार्थ- सादृश्यात्मको धर्मस्तिर्यक्सामान्यं प्रोच्यते, यथा खण्डमुण्डादिषु गोषु गोत्वम् ॥ ४ ॥ विशेषार्थ – सब गायों का परिणमन समान होता है, इसलिये सब ही को गोशब्द से व्यवहृत करते हैं। यहाँ गोत्व का अर्थ सदृशपरिणाम लिया है और वह प्रत्येक गाय में भिन्नता से रहता है, व्यक्तियों के समान ही संख्या वाला है, एक नहीं। ऊर्ध्वतासामान्य का स्वरूप और दृष्टान्तঅব্যহৰিাঘিলুঙলা ফুজি ঘাস্বস্থি । अर्थ - पूर्व और उत्तर पर्याय में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वतासामान्य कहते हैं । जैसे-स्थास और कुशूल आदि पर्यायों में मिट्टी रहती है । यहाँ यह मिट्टी ही ऊर्ध्वतासामान्य मानी जावेगी। संस्कृतार्थ - परे ऽ परे च ये विवर्तास्तेषु ब्याप्नोतीति परापरदिवर्तव्यापि । तथा च पूर्वोत्तरपर्यायव्यापकत्वे सति द्रव्यत्वं नाम ऊलतासामान्यम् । यथा स्थासकोशकुशूलादिषु पर्यायेषु व्यापकत्वं मृत्तिका
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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