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________________ भ्यायशास्त्र सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः । ८३ अर्थ-इस गुफा में मृग की क्रीडा नहीं है, क्योंकि सिंह बोल रहा है। यहाँ कारणविरुद्ध कार्य है, अर्थात् मृगक्रीडा के कारण मृग के विरोधी सिंह का शब्दरूप कार्य पाया जाता है, इसलिये इस हेतु का विरुद्धकार्योपलब्धिहेतु में अन्तर्भाव करना चाहिये। और जैसे इंस कारणविरुद्धकार्योपलब्धि का विरुद्ध कार्योपलब्धि में अन्तर्भाव होता है, उसी प्रकार कार्यकार्य हेतु का अविरुद्धकार्योपलब्धि हेतु में अन्तर्भाव होता है ॥८७॥ __ संस्कृतार्थ-नास्त्यत्र गुहायां मृगक्रीडनं मृगारिसंशब्दनात् । अत्र कारणविरुद्धकार्य विद्यते । अर्थान्मृगक्रीडाकारणमृगस्य विरोधिनः सिंहस्य शब्दरूपं कार्यमुपलभ्यते, अतोऽ त्रायं हेतु: विरुद्ध कार्योपलब्धिहेतु विज्ञेयः। तथा च यथा कारणविरुद्धकार्योपलब्धि विरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भवति तथैव कार्यकार्य हेतुरपि अविरुद्धकार्योपलब्धावन्तर्भवतीति भावः ॥८६॥ व्युत्पन्न जनों की अपेक्षा अनुमान के अवयवों के . प्रयोग का नियम উত্মমঘফ বাথ ১ গ্যথাযথৰ দ্বা। अर्थ-व्युत्पन्न पुरुषों के लिये तथोपपत्ति या अन्यथानुपपत्ति नियम से ही प्रयोग करना चाहिये ।।६।। संस्कृतार्थ-व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्त्या, अन्यथानुपपत्त्यैव वा विधेयः ॥१०॥ विशेषार्थ—साध्य के सद्भाव में साधन का होना तथोपपत्ति और साध्य के अभाव में साधन का न होना अन्यथानुपपत्ति कहलाती है॥६॥ व्युत्पन्नप्रयोग की उदाहरण द्वारा पुष्टिবিলাল বই জুবাযথ গ্লু অাত্রथान पपत्ते व ॥११॥
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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