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________________ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते । प्रभाव को सिद्ध करता है, इससे यह हेतु अविरुद्धसहचरानुपलब्धिहेतु हुआ था ___ संस्कृतार्थ- नास्त्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः । अत्र उन्नामाद् अविरुद्धसहचरस्य नामस्याभाब: उन्नामस्याभावं साधयति । अतोऽयं नामानुपलब्धित्वहेतुः अविरुद्धसहचरानुपलब्धिहेतु तिः ॥८१।। विरुद्धानुपलब्धेः भेदाः, विरुद्धानुपलब्धि के भेद--- বিহবলবিদ্যা ঙ্খিী মা, বিফাকাभावानुपलब्धिभेदात् ॥८२॥ अर्थ-घिधिसाधिका विरुद्धानुपलब्धि के तीन भेद हैं । विरुद्धकार्यानुपलब्धि, विरुद्ध कारणानुपलब्धि और विरुद्धस्वभावानुपलब्धि ।२। विशेषार्थ- साध्य से विरुद्ध पदार्थ के कार्य का प्रभाव, साध्य से विरुद्ध पदार्थ के कारण का प्रभाव और साध्य से विरुद्ध पदार्थ के स्वभाव का अभाव । ये क्रम से उन तीनों विरुद्ध कार्यानुपलब्धि वगैरह के लक्षण हैं। विरुद्धकार्यानुपलब्धि का उदाहरण হত্মাবিত্যাফিলি গুহাজিহিনি লিৰামলাनुपलब्डः ॥१३॥ अर्थ-इस प्राणी में कोई एक रोग है, क्योंकि नीरोग चेष्टा नहीं पाई जाती है। यहां व्याधिविशेष के सद्भावरूप साध्य से विरोधी व्याधिविशेष के अभाव के कार्य नीरोग चेष्टा की अनुपलब्धि है। इससे यह हेतु विरुद्धकार्यानुपलब्धिहेतु हुआ। संस्कृतार्थ-अस्मिन्प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धेः । अत्र व्याधिविशेषसझावसाध्याद् दिरोधिनो व्याधिविशेषा
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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