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________________ ७८ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे-- संस्कृतार्थ- नास्त्यत्र शिंशपा वृक्षानुपलब्धेः। व्यापकवृक्षं विना व्याप्यस्वरूपः शिशपाः भवितुं नाहति । अर्थादत्र व्यापकवृक्षानुपलब्धिः, व्याप्यशिशपाप्रतिषेधं साधयति । अतोऽ यं वृक्षानुपलब्धिहेतुः 'अविरुद्धव्यापकानुपलब्धिहेतु:' सम्भूतः। अविरुद्धकार्यानुपलब्धि का उदाहरणলাসামনিভাখিল জুলুথতা: ৩৩৷৷ अर्थ-यहां बिना सामर्थ्य रुकी अग्नि नहीं है, क्योंकि धूम नहीं पाया जाता है। यहां सामर्थ्य वाली अग्नि के अविरुद्ध कार्य धूम का अभाव है, इसलिये मालूम होता है कि यहां अग्नि नहीं है, अगर है भी तो भस्म वगैरह से ढकी हुई है । इस प्रकार यहां यह धूमानु पलब्धित्वहेतु अविरुद्ध कार्यानु पलब्धिहेतु हुआ ॥७७।। संस्कृतार्थ-नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामर्थ्योऽग्नि धूमानुपब्लब्धः। अत्र सामर्थ्यवतोज्नेरविरुद्धकार्यस्य धूमास्याभावो विद्यते, अतश्च प्रतीयते यदत्राग्नि स्ति, अस्ति चेद् भस्मादिभिराच्छन्नो विद्यते। एवमत्रायं धूमानुपलब्धित्वहेतु : 'अविरुद्ध कार्यानुपलब्धिहेतुः' विज्ञेयः ॥७७॥ अविरुद्ध कारणानुपलब्धि का उदाहरण- . नास्त्यत्र धूमो ऽ नग्नेः ॥७८।। अर्थ – यहां धूम नहीं है, क्योंकि अग्नि नहीं है। यहां धूम के अविरुद्ध कारण अग्नि का अभाव धूम के प्रभाव को सिद्ध करता है, इसलिये यह हेतु अविरुद्धकारणानुपलब्धिहेतु हुआ ॥७८|| संस्कृतार्थ –नास्त्यत्र धूमोऽनग्नेः। अत्र धूमास्याविरुद्ध कारणस्याग्नेरभावो धूमाभावं साधयति । अतोऽयम् अनग्नित्वहेतु: 'अविरुद्धकारणानुपलब्धिहेतुः जातः ।।७।।
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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