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________________ ६६ श्रीमाणिक्यनन्दिस्वामिविरचिते परीक्षामुखे संस्कृतार्थ- उपलब्धिरूपो हेतु द्विविध:-प्रविरुद्धोपलब्धिः, विरुद्धोपलब्धिश्चेति । अनुपलब्धिरूपो हेतुरपि द्विविधः-अविरुद्धानुपलब्धिः, विरुद्धानुपलब्धिश्चेति ॥५४॥ विशेषार्थ-ये चारों क्रमशः विधि, निषेध, विधि और निषेध के साधक होते हैं। बौद्धों का कहना है कि-उपलब्धिरूपहेतु बिधि अर्थात् मौजूदगी का ही तथा अनुपलब्धिरूपहेतु निषेध अर्थात् गैरमौजूदगी का ही साधक है। इस सूत्र के द्वारा उनकी इस मान्यता का खंडन किया गया है ॥५४॥ अविरुद्धोपलब्धिभेदाः, अविरुद्धोपलब्धि के भेदअविल्द्धोपलब्धि विधी षोढा, ज्याप्यकार्यकारणपूर्वोतरसहवरभेदात् ॥५५॥ अर्थ-शाविरुद्धव्याप्योपलब्धि, अविरुद्धकार्योपलब्धि, अविरुद्धकारणोपलब्धिा, अविरुद्धपूर्वचरोपलब्धि, अविरुद्धोत्तरचटोपलब्धि और अदिरसहपरोपलब्धि ये छह अविरुद्धोपलब्धिरूप हेतु के भेद हैं ।।५।। संस्कृतार्थ-अविरुद्धोपलब्धिरूपो हेतुः विधौ साध्ये सति षट्प्रकारो भवति । व्याप्यरूपः, कार्यरूपः, कारणरूपः, पूर्वचररूपः, उत्तरचररूपः, सहचररूपश्चेति ॥५५॥ विशेषार्थ-साध्य से व्याप्यस्वरूप, साध्य का कार्य, साध्य का कारण, साध्य से पूर्व चर, साध्य से उत्तरचर, और साध्य का सहचर कारणहेतु के विधिसाधकपनाহাত্মাল ক্যালকালজ্জিয়িতি কিস্মিাৎজ হম কামিবি ফাজলাकल्ये ॥५६॥
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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