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________________ न्यायशास्त्र सुबोधटीकायां तृतीयः परिच्छेदः। ६५ अर्थ -- परार्थानुमान के कारण होने से, परार्थानुमान के प्रतिपादक वचनों को भी परानुमान कहते हैं। अथवा उन वचनों का स्वार्थानुमान कारण है, इसलिये उन्हें परार्थानुमान कहते हैं। संस्कृतार्थ- स्वार्थानुमानस्य कार्यत्वात् परार्थानुमानस्य कारणत्वाच्च परार्थानुमानप्रतिपादकवचनमपि उपचारतः परार्थानुमान प्रोच्यते ॥५२॥ विशेषार्थ--उपचार किसी प्रयोजन को अथवा किसी निमित्तको लेकर किया जाता है। यहाँ वचन, प्रथम तो परार्थानुमान के निमित्त हैं, दूसरे अनुमान के पाँच अवयवों के व्यवहार करने में प्रयोजनभूत हैं। क्योंकि ज्ञानस्वरूप आत्मा में प्रतिज्ञा आदि पाँच अवयवों का व्यवहार नहीं किया जा सकता, इसलिए उपचार से वचनों को भी परार्थानुमान कहते हैं। वचनों को गौणरूप से अनुमान इसलिए कहा है कि वे अचेतन हैं और अचेतन से अज्ञान की निवृत्ति होती नहीं; इसलिये जब इन से फल नहीं होता तब इन्हें साक्षात् प्रमाण भी नहीं कह सकते । केवल उपचार (गौणता) से प्रमाण कहा गया है, क्योंकि वे परार्थानुमान के कारण और स्वार्थानुमान के कार्य हैं। हेतो मैंदे, हेतु के भेदस हेतु द्वेधोपलव्यनुपलब्धिभेदात् ॥ ५३ ।। अर्थ--उपलब्धिरूपहेतु और अनुपलब्धिरूपहेतु के भेद से हेतु के दो भेद हैं ॥५३॥ ___ संस्कृतार्थ --हेतु द्विविधः उपलब्धिरूपो ऽ नुपलब्धिरूपश्च । उपलब्धिरूप और अनुपलब्धिरूप हेतु के विषय-- उपलब्धिः विधिप्रतिषेषयोरनुपलब्धिश्च ॥५४॥ अर्थ--उपलब्धिरूपहेतु और अनुपलब्धिरूपहेतु दोनों ही विधि और प्रतिषेध के साधक हैं ॥५४॥
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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