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________________ न्यायशास्त्र सुबोषटीकयां तृतीयः परिच्छेदः। ५५ अर्थ जैसे साध्ययुक्त धर्मी में साधनरुप धर्म को समझाने के लिये उपनय का प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार साध्य कहां साधना इष्ट है इसका निश्चय करने के लिये ही पक्ष का भी प्रयोग होता है ।। ३१ ।। संस्कृतार्थ-- साध्यव्याप्तसाधनप्रदर्शनेन तदापारावगतावपि नियतधमिसम्वन्धिताप्रदर्शनार्थ ययोपनयः प्रयुज्यते तथा साध्यस्य विशिष्टधमिसम्बन्धितावबोधनाथं पक्षोऽपि प्रयोक्तव्यः । विशेषार्थ- इस स्थान में अग्नि है क्योंकि धूम है । जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अवश्य अग्नि होती है। जैसे-रसोईघर । इस प्रकार साध्य (अग्नि) के साथ व्याप्ति रखने वाले, साधन (धूम) को दिखाने से ही, उन (साध्य साधन) का आधार ( पक्ष ) मालूम हो जाता है । क्योंकि वे बिना प्राधार के नहीं रह सकते। ऐसी हालत में प्रागे जाकर 'जैसा रसोईघर धूम वाला है उसी तरह पर्वत भी झूम वाला है यह उपनय (पक्ष में दुबारा धूम का प्रदर्शन) इसीलिये प्रयुक्त किया जाता है कि निश्चित पक्ष में साधन मालूम हो जाये। इसीलिये इसी प्रकार स्वत: सिद्ध होने पर भी पक्ष का प्रयोग किया जाता है ॥३१॥ पक्षा के प्रयोग की आवश्यकता की पुष्टिको वा विधा हेतुनुक्त्वा समर्थयमानो न पायति ॥ ३२॥ अर्थ-ऐसा कौन वादी प्रतिवादी है जो तीन प्रकार के हेतु को कह कर उसका समर्थन करता हुमा उस हेतु को पक्ष नहीं मानेया ॥ ३२ ॥ संस्कृतार्थ-को या बादी प्रतिवादी त्रिविष हेतुं स्वीकृत्य तत्समर्थनं च कुर्वाणः पक्षवचनं न स्वीकरोति ? अपि तु स्वीकरोत्येव ॥ ३२ ॥ विशेषार्थ-दोषों का परिहार कर अपने साध्या और साधन को समर्थरूप प्ररूपण करने को समय सचान 'समर्थन' कहलाता है। यही
SR No.009944
Book TitlePariksha Mukha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandiswami, Mohanlal Shastri
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year2005
Total Pages136
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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