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________________ ७६ पञ्चतन्त्र नहीं है। कहा है कि "ब्राह्मण के मारने पर भी प्रायश्चित्त करके शुद्धि हो जाती है पर मित्र का द्रोह करने वाले मनुष्य की कभी शुद्धि नहीं होती। इस पर उसने क्रोधित होकर मुझसे कहा, 'अरे दुष्ट-बुद्धि! संजीवक तो घास-खोर है और हम सब मांस-खोर हैं, इसलिए हमारे बीच तो स्वाभाविक वैर है। शत्रु की उपेक्षा कैसे की जा सकती है ? इसलिए साम आदि उपायों से उसका नाश करना चाहिए। उसके मारने का दोष नहीं लगेगा। कहा भी है -- "दूसरे उपायों से अगर शत्रु को मारना मुश्किल हो तो बुद्धिमान मनुष्य को अपनी कन्या देकर उसे मारना चाहिए । शत्रु-वध में कोई दोष नहीं। "बुद्धिमान क्षत्रिय युद्ध में बुरा-भला नहीं मानते। प्राचीन काल में द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने ऊंघते हुए धृष्टद्युम्न को मारा था।" पिंगलक का यह निश्चय जानकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। इसलिए मुझे धोखा देने का पाप नहीं लग सकता। मैंने तुम्हें भेद की बात बतला दी । अब तुम्हें जैसे अच्छा लगे करो।" संजीवक उस बिजली गिरने जैसी बात को सुनकर बेहोश हो गया। होश आने पर वैराग्य के साथ उसने कहा, "अरे ठीक ही कहा है कि "स्त्रियाँ अधिकतर बदमाशों का साथ करती हैं; राजा अधिकतर बिना प्रेम के होता है ; धन प्रायः कंजूस को मिलता है तथा बादल पहाड़ तथा दुर्गम स्थानों में ही अधिक बरसता है। "जो बेवकूफ 'मैं राजा का मान्य हूँ', ऐसा मानता है, उसे बिना सींग का बैल जानना चाहिए। "मनुष्य के लिए जंगल में रहना ठीक है, भीख मांगना भी ठीक है, बोझ ढोकर रोजी चलाना भी ठीक है, व्याधि भी ठीक है पर राज्याधिकार से सम्पत्ति मिलना ठीक नहीं है।
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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