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________________ मित्र-भेद ५५ इस स्थान की रक्षा करते हुए अगर मेरी मृत्यु हो गई तो वह भी बहुत अच्छा ही होगा। कहा है कि । गाय के लिए, ब्राह्मण के लिए, स्वामी के लिए, स्त्री के लिए अथवा अपनी जगह के लिए जो प्राण त्याग करता है उसे अक्षयलोक प्राप्त होता है। "चन्द्र-मंडल में स्थित सूर्य का राहु द्वारा ग्रहण होता है , शरणागत के साथ तेजस्वियों को विपत्ति भी श्लाघनीय होती है।" इस प्रकार निश्चय करके सबेरे दातुन करने के बाद उसने राजकुमारी से कहा , “सब शत्रुओं को खत्म करने के बाद ही मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगा । बहुत क्या कहूँ , तेरा भोग भी मैं तभी करूँगा । तू अपने पिता से कहना कि सबेरे उसे अपनी सब सेना के साथ नगर के बाहर निकलकर युद्ध करना चाहिए, मैं आकाश में रहकर शत्रुओं को निस्तेज कर दूंगा। बाद में सुख से तुम उनका नाश करना । अगर मैं स्वयं ही उनका नाश करूँगा तो उन पापियों को स्वर्गीय गति मिलेगी,इसलिए तुम्हें ऐसा करना चाहिए कि वे भागते हुए मारे जायं और इससे स्वर्ग न जा सकें।" राज-कन्या ने यह सून पिता के पास जाकर सब बातें कह दीं। उसकी बात में श्रद्धा करते हुए राजा भी सबेरे सुसज्जित सेनाकें साथ नगर के बाहर निकला । अपना मरण निश्चय करके बुनकर भी हाथ में धनुष लेकर और आकाश धारी गरुड़ पर चढ़कर युद्ध के लिए चल पड़ा। . उस समय भूत, भविष्य और वर्तमान के जानने वाले भगवान् नारायण ने जैसे ही गरुड़ का ध्यान किया कि वह फौरन आ पहुँचे । नारायण ने उससे हँसकर कहा कि "हे गरुड़ ! क्या तू जानता है कि लकड़ी के गरुड़ पर चढ़कर मेरा रूप धारण करके बुनकर राज-कन्या के साथ विहार करता है ?" गरुड़ ने कहा, "मैं उसकी चालबाजी जानता हूँ। तो अब हमें क्या करना चाहिए ।" भगवान् ने कहा, "मरने का निश्चय करके तथा प्रण करके आज वह बुनकर युद्ध के लिए निकला है। श्रेष्ठ क्षत्रियों के वाणों से घायल होकर उसे अवश्य
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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