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________________ मित्र-भेद कदाचित वह स्थिति पर अधिकार पाता है । समुद्र-यात्रा में जहाज टूट जाने पर भी कर्णधार केवल काम की ही आशा रखता है। और भी "हमेशा उद्योग करने वाले के पान लक्ष्मी आती है, 'दैव ! दैव !' केवल का पुरुष पुकारते हैं। भाग्य को एक तरफ करके अपनी ताकत से काम करो । यत्न करने से भी काम सिद्ध न हो तो उसमें क्या दोष है ?" यह जानकर बारीक बुद्धि के प्रभाव से वे दोनों न जानने पाएं, ऐसी छिपी चाल मैं चलूंगा। कहा भी है-- "अच्छी तरह से साधे हुए दंभ का पार ब्रह्मा भी नहीं पा सकते । बुनकर ने भी विष्णु का रूप धारण करके राजकन्या के साथ रमण किया।" करटक ने कहा , “सो कैसे ?" उसने कहाविष्णु का रूप धारण करने वाले बुनकर ८. और राज-कन्या की कथा किसी नगर में एक बुनकर और रथकार मित्र होकर रहते थे । बचपन से ही एक साथ रहने से उन दोनों में इतना स्नेह हो गया था कि वे सब जगहों में एक साथ विहार करते हुए समय बिताते थे। एक समय उस नगर के किसी मंदिर में यात्रोत्सव हुआ । वहाँ अनेक चारणों और भिन्न-भिन्न देशों से आए हुए लोगों से भरे स्थान में घूमते हुए दोनों मित्रों ने हथिनी पर सवार सब लक्षणों से युक्त कंचुकियों और वर्षधरों (ख्वाजा सराते में मिली हुई नया देवता-नान को आई हुई किसी राज-कन्या को देखा। उसे देखकर काम-बाणों की मार से वह बुनकर, विष से पीड़ित के समान अथवा दुष्ट-ग्रह से ग्रसित होने वाले के न पड़ा। उसे इस हालत में देखकर उसके दुःख से दुखी रथकार विश्वासी मनुष्यों द्वारा उसे उठाकर अपने घर ले आया। वहाँ चिकित्सकों के बताए अनेक तरह के ठंडे उपचारों तथा ओझाओं के मंत्रों से इलाज करने पर बहुत
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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