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________________ २६४ पञ्चतन्त्र बुद्धिमान पर गरीब पुरुष की बुद्धि नष्ट हो जाती है । "बिना तारे के जैसे आकाश, जैसे सूखा हुआ तालाब, श्मशान की तरह भयंकरता, गरीब का घर सुन्दर होने पर भी रूखा लगता है । " जिस तरह पानी के बुलबुलों का बराबर पानी में पैदा होकर उसी में समा जाने से पता नहीं लगता, उसी तरह गरीब साधारण आदमी के रहने पर भी उसका पता नहीं लगता । "अच्छे कुल वाले और चतुर सुजन को छोड़कर लोग कुल चातुर्य और शीलविहीन पर धनवान मनुष्य की कल्पतरु की तरह रोज खुशामद करते हैं । ८८ 'इस संसार में पहले किये हुये अच्छे काम भी कुछ काम के नहीं होते । बड़े खानदान में पैदा हुए विद्वान् पुरुष भी जिसके पास जब पैसा होता है तब उसकी दासता करते हैं । ८८ 'अपनी तबीयत से गरजते हुए समुद्र को भी लोग 'यह हल्का है' यह नहीं कहते । इस संसार में धनवान लोग जो कुछ भी करते हैं। वह सभी अलज्जाकर माना जाता है ।" यह निश्चय करके उसने फिर सोचा, "मैं अनशन करके अपने प्राण दे दूंगा, तकलीफ में जीने से क्या फायदा ?” यह सोचकर वह सो गया । बाद में सपने में पद्मनिधि ने जैन साधु के रूप में उसे दर्शन देकर कहा, "अरे सेठ ! वैराग्य मत करें, तेरे पुरखों द्वारा उपार्जित मैं पद्मनिधि हूं । इसी रूप में मैं सबेरे तेरे घर आऊंगी वहां तू डंडे से मेरे सिर पर चोट करना जिससे मैं सोने की होकर कभी नहीं छीजूंगी ।" सबेरे उठकर सपने की याद आते ही वह चिंता रूपी चक्र पर चढ़ गया। “अरे ! यह सपना सच्चा होगा कि झूठा नहीं जानता । यह जरूर झूठा होगा, क्योंकि मैं बराबर धन की ही चिंता किया करता हूं । कहा भी है "" 'बीमार, शोकातुर, चिंताग्रस्त, कामार्त और मतवाले का देखा सपना बेमतलब का होता है ।"
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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