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________________ २५४ पञ्चतन्त्र गई है, तुझे देखकर मुझे कामवेग हुआ है, इसलिए मुझे रति दक्षिणा दे ।" इस पर वह बोली, "हे सुभग, अगर ऐसी बात है तो ठीक है । मेरे पति के पास बहुत धन है। बुढ़ापे से वह चल भी नहीं सकता । उसका धन लेकर मैं आती हूं, जिससे तेरे साथ दूसरी जगह जाकर मनमानी मौज उड़ाऊंगी ।" उसने कहा, “मुझे भी यह ठीक लगता है । सबेरे तू इस जगह जल्दी से आना, जिससे किसी अच्छे नगर में जाकर तेरे साथ मैं जीवन का सुख ले सकूं ।” “ऐसा ही हो,” कहकर और प्रतिज्ञा करके हँसती हुई वह स्त्री अपने घर जाकर रात में अपने पति के सो जाने पर सब मालमता लेकर सबेरे निश्चित स्थान पर जा पहुँची । धूर्त भी उसे आगे करके चाल बढ़ाता हुआ दक्षिण दिशा की ओर चल दिया । " दो योजन चलने के बाद उन्हें एक नदी मिली। उसे देखकर धूर्त ने सोचा, "ढलती जवानी वाली इस स्त्री को लेकर मैं क्या करूंगा ? शायद कोई पीछे से आ जाय तो फिर गजब हो जायगा । मैं केवल इसका मालमता लेकर चल दूं ।" यह निश्चय करके उसने उस स्त्री से कहा, “प्रिय ! यह नदी मुश्किल से पार की जा सकती है इसलिए मैं यह धन उस पार रखकर फिर लौट आता हूं | इसके बाद तुझे अकेले पीठ पर चढ़ाकर मैं सुख से पार उतार दूंगा ।" उसने कहा,“सुभग! ऐसा ही कर ।" यह कहकर उसने उसे अपना सब मालमता सौंप दिया । बाद में उस धूर्त ने कहा, “प्रिये ! अपने पहने कपड़े भी तू मुझे दे दे जिससे पानी में तू बेखटके चल सके ।” उसने वैसा ही किया और वह धूर्त मालमता और कपड़े के जोड़े लेकर अपने मनचाहे देश को चला गया । वह स्त्री अपने गले पर दोनों हाथ रखकर नदी के किनारे उत्सुकता से बाट जोहती हुई जब तक बैठी रही तब तक कोई सियारिन मुंह में माँस का लोथड़ा लिये हुए वहां आ पहुंची । जब तक वह नदी के किनारे देखे उसी समय एक बड़ा मच्छ पानी से बाहर निकला । उसे देखकर मांस का लोथड़ा छोड़कर वह सियारिन उसकी तरफ दौड़ी। उसी बीच में मांस के लोथड़े को देखकर एक गिद्ध उसे लेकर आकाश में उड़ गया । सियारिन को देखकर मच्छ भी पानी में घुस गया । अपना श्रम व्यर्थ जाता देखकर
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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