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________________ काकोलूकीय २२५ ने भी उनके संतोष के लिए अनेक प्रकार की चालें दिखलाईं । उसके शरीर के स्पर्श से सुखी होकर जलपाद ने उससे कहा, रथ, " मन्दविष ने जो सुख मुझे दिया वह सुख मुझे हाथी, घोड़े, आदमी अथवा नाव पर भी चढ़ने से नहीं मिला ।" एक दिन मन्दविष बहाना करके धीरे-धीरे चलने लगा । यह देखकर जलपाद ने कहा, “आज तुम पहले की तरह क्यों नहीं चलते ? " मन्दविष ने कहा, “देव ! आज बिना भोजन के मुझ में भार उठाने की शक्ति नहीं है ।" इस पर उसने कहा, “भद्र ! छोटे मेढकों को खा ले ।" यह सुनकर खुशी मन से मन्दविष ने कहा, "मुझे ब्राह्मण का श्राप है.. फिर भी आपकी बात से मैं प्रसन्न हूं।" इस तरह रोज रोज मेढकों को खाता: हुआ वह कुछ दिनों में मजबूत हो गया । खुशी होकर और भीतर-भीतर हँसते हुए उसने कहा - 4" 'इन बहुत से मेढकों को मैंने धोखा देकर अपने वश में कर लिया है; मुझसे खाए जाने पर ये कितने दिनों तक चलेंगे ।” जलपाद भी मन्दविष की बनावटी बातों पर मोहित होकर कुछ समझ न सका । इसी बीच में एक दूसरा बड़ा काला सांप उस जगह आया और उसे मेढकों की सवारी बना हुआ देखकर आश्चर्य में पड़ गया और कहा, “मित्र, जो हमारे भोजन हैं उन्हें तू कैसे उठाए फिरता है ? इसका मेल नहीं खाता ।" मन्दविष ने कहा "मैं यह सब जानता हूं कि मेढकों से मेरा मेल नहीं । घृतान्ध ब्राह्मण की तरह मैं कुछ दिनों तक बाट जोह रहा हूं ।" यह कैसे ? " मन्दविष कहने लगा उसने कहा, 66 ---- घी से अंधे ब्राह्मण की कथा “किसी नगर में यज्ञदत्त नाम का एक ब्राह्मण रहता था । दूसरे से प्रेम करती हुई उसकी छिनाल स्त्री नित्य विट को घी-शक्कर से घेवर बनाकर अपने पति की चोरी से देती थी । एक समय उसे ऐसा
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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