SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काकोलूकीय होकर पड़ते दिन हैं। बिताने युवतियाँ जिसका सैरंध्री कहकर तिरस्कार करती थीं, ऐसी द्रौपदी ने मत्स्यराज के घर में क्या चन्दन नहीं घिसा था?" मेघवर्ण ने कहा, "तात ! दुश्मन के साथ रहने को मैं तलवार की धार जैसा मानता हूं।" उसने कहा, “देव ! यह ठीक है पर उन-जैसे मूों की मंडली मैंने और कहीं नहीं देखी। सिवाय महाबुद्धिमान और अनेक में चतुर रक्ताक्ष के वहां कोई बुद्धिमान नहीं था । उसने मेरे चित्त की बात ठीक-ठीक जान ली। जो दूसरे मूर्ख मंत्री थे वे केवल नाम-मात्र के थे। राजनीति का उन्हें ज्ञान नहीं था और उन्हें यह भी पता नहीं था कि "दुश्मन का संग चाहने वाला दास दुष्ट होता है। गुप्त-दूत के धर्म से नित्य उद्वेग देने वाला और दूषित होता है। "आसन, शयन, यान, भोजन, पान इत्यादि से शत्रु दृष्ट और अदृष्ट में भेद न मानने वाले दूसरे शत्रुओं का नाश करते हैं। "इसलिए वुद्धिमान अर्थ, धर्म और काम के निवासस्थान अपने को सब प्रयत्नों से रक्षा करते हैं, क्योंकि प्रमाद से नाश होता है।" अथवा ठीक ही कहा है -- "बदपरहेजी करने वाले को कौन रोग नहीं सताते ? कुटिलता आदि मूर्ख मंत्रियों को कहां आती है ? लक्ष्मी किसको घमंडी नहीं बनाती ? मृत्यु किसे नहीं मारती ? स्त्री की वासना किसे पीड़ा नहीं देती ? " लोभी का यश नष्ट हो जाता है, खल की मित्रता नष्ट हो जाती है। नष्ट क्रिया वाले का कुल, धन पैदा करने वाले का धन, व्यसनियों का विद्याबल, कंजूसों का सुख और अभिमानी मंत्री वाले राजा का राज्य नष्ट हो जाता है । हे राजा, आपने यह जो कहा है कि मैंने दुश्मन के साथ. असिधारा-व्रत का पालन किया है उसका मैंने स्वयं अनुभव किया है। कहा भी है-- "अपमान को आगे करके और मान को पीछे करके बुद्धिमान अपना
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy