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________________ २०५ काकोलूकीय अपना किया हुआ पाप स्वयं भोगना पड़ता है। "मैं पापबुद्धि हमेशा पाप में लगा रहा हूं। इसमें शक नहीं कि मैं भयंकर नरक में गिरूंगा। " तूने मुझ जैसे नृशंस के सामने यह आदर्श उपस्थित किया। मांगने पर एक महात्मा कबूतर ने अपना मांस तक दे दिया। "आज दिन से मैं अपनी यह देह, सब सुखों को छोड़कर गरमी में थोड़े पानी की तरह सुखा दूंगा। "ठंड, हवा, गरमी सहते हुए इस दुबले पतले और मलीन शरीर से अनेक उपवास करते हुए मैं उत्तम धर्म का पालन करूंगा।" " इसके बाद, डंडा, फांस, जाल और पिंजड़े को तोड़कर उस शिकारी ने उस गरीब कबूतरी को छोड़ दिया । 'शिकारी द्वारा छोड़ दिये जाने पर उसने अपने पति को आग में गिरा हुआ देखा । इस पर वह शोक-संतप्त चित्त से दुखी होकर रोने लगी। " हे नाथ ! तुम्हारे न जीने पर अब मुझे क्या करना है। पति के विहीन दीन स्त्रियों के जीने से क्या लाभ ? "मन का दर्प, अहंकार तथा रिश्तेदारों और घर में इज्जत, सेवकों और दासों में आज्ञा, यह विधवा होते ही नष्ट हो जाते हैं।" "इस तरह अत्यन्त दुखी होकर और बहुत रोते कलपते वह पतिव्रता जलती हुी आग में घुस गई। " इसके पश्चात् दिव्य कपड़े और गहने पहने हुए उस कबूतरी ने विमान पर बैठे हुए अपने पति को देखा। "दिव्य शरीर पाकर उसने भी उससे यह बात कही, " हे शुभे! मेरे पीछे चलकर तूने ठीक ही किया। "मनुष्य के शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ रोएं हैं उतने ही समय तक जो स्त्री पति के पीछे चलती है वह स्वर्ग में रहती है। तुझ सी वीर की कपोत-देह हमेशा सुख पाती थी और
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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