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________________ मित्रसंप्राप्ति १६१ "संतोष रूपी अमृत से अघाए हुए मनुष्यों को जो सुख मिलता है, वह इधर-उधर धन के लालच में दौड़ते लोगों को कहाँ से मिल सकता है ! "अमृत जैसे संतोष पीने वालों को परम सुख मिलता है, पर असंतोषी को हमेशा दुःख-ही-दुःख मिलता है। "चित्त को वश में कर लेने से सब इन्द्रियां वश में आती हैं। बादलों से ढके सूर्य की सब किरणें भी ढक जाती हैं। "शांत महर्षिगण इच्छाओं की शांति को ही स्वास्थ्य कहते हैं। आग तापने से जैसे प्यास नहीं बुझती, उसी तरह धन से इच्छाओं का दमन नहीं होता। "धन के लिए मनुष्य क्या-क्या नहीं करता ? वह अनिंद्य की निन्दा करता है और अस्तुत्य की लम्बी-चौड़ी वन्दना करता है। "धर्म के लिए भी जो धन का इच्छुक है, ऐसी इच्छा भी शुभ नहीं । कीचड़ को धोने से पहले उससे दूर रहना ही अच्छा है। "दान के समान कोई दूसरा खजाना नहीं है, लोभ से बड़ा इस पृथ्वी पर दूसरा कोई शत्रु नहीं है, शांति के समान दूसरा कोई गहना नहीं है, और संतोष के समान कोई धन नहीं है ।। "जिसमें मान रूपी धन की कमी हो उसे ही दरिद्रता की परम मूर्ति मानना चाहिए । शिव के पास धन की जगह केवल बूढा बैल है, फिर भी वे परमेश्वर हैं। "आर्य गिरकर भी गेंद की तरह फिर ऊंचे-ऊंचे उठते हैं, पर __ मूर्ख मिट्टी के लोंदे की तरह गिरते हैं। भद्र ! यह जानकर तुझे संतोष करना चाहिए।" मंथरक की बात सुनकर कौआ बोला, “भद्र ! मंथरक ने जो कहा है उसे तुझे अपने चित्त में रखना चाहिए। अथवा ठीक ही कहा है-- "हे राजन! हमेशा मीठा बोलने वाले आदमी. सुलभ हैं, पर
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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