SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चतन्त्र ___इसलिए मैं कहता हूं कि घने वन में पहुंचकर सोमिलक जिस तरह दिशा भूल गया , उसी तरह धन पैदा करने के बाद भी (अगर भाग्य में न हो तो ) वह भोगा नहीं जा सकता। इसलिए हे हिरण्यक ! यह जानकर धन के विषय में तू दुखी मत हो। धन होते हुए भी यदि उसका उपभोग न हो सके तो वह नहीं जैसा है, ऐसा मान लेना चाहिए । कहा है कि "घर के अन्दर गड़े हए धन से लोग धनिक कहे जायँ तो उसी धन से हम सब भी क्यों न धनी कहे जायँ ? और भी "तालाब के पानी को बाहर फेंकना ही उसकी रक्षा है। उसी तरह पैदा किये हुए धन का दान ही उसकी रक्षा है। "धन को देना अथवा उसका उपभोग करना चाहिए, उसका संचय नहीं। देखो शहद की मक्खियों द्वारा इकट्ठा किया हुआ धन दूसरे ही चुरा लेते हैं। और भी - "दान, उपभोग और नाश, धन की ये तीन गतियां होती हैं। जो दान नहीं देता या उपभोग नहीं करता, उसके धन की ' तीसरी गति, अर्थात् नाश होता है। यह जानकर बुद्धिमान आदमी को बटोरने के लिए धन पैदा नहीं करना चाहिए, क्योंकि इसका नतीजा दुःख देने वाला होता है । कहा है कि "जो मूर्ख सुख की आशा से धनादि के लिए खेद पाते हैं वे .: गरमी से व्याकुल ठंडक के लिए आग तापने वालों के समान हैं। "हवा पीने पर भी सांप दुर्बल नहीं होते, वन के हाथी सूखे तिनके चरकर भी बलवान होते हैं। मुनिश्रेष्ठ कंदों और फलों से अपना समय बिताते हैं। इसलिए संतोष ही मनुष्य ... का परम लक्ष्य होना चाहिए।
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy