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________________ ११० पञ्चतन्त्र धर्मं बुद्धि और उसके मित्र की कथा " किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे । एक समय पापबुद्धि ने सोचा, "मैं मूर्ख और दरिद्र हूं, इसलिए इस धर्मबुद्धि को साथ लेकर परदेश में जाकर उसकी मदद से धन पैदा करके फिर उसे ठगकर सुखी होऊं ।" बाद में एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, "मित्र, बुढ़ापे में तू अपने पहले की बातों के बारे में क्या सोचेगा ? बिना देसावर देखे हुए बच्चों से तू क्या बातचीत करेगा ? कहा है कि "धरती की पीठ पर, देशांतरों में घूम-फिरकर जिसने अनेक प्रकार की भाषाओं और पहरावों को नहीं जाना उसका जन्म वृथा है । उसी प्रकार "जब तक मनुष्य इस पृथ्वी पर खुशी से एक देश से दूसरे देश में घूमता फिरता नहीं तब तक वह पूरी तौर से विद्या, धन अथवा कला प्राप्त नहीं कर सकता !" उसके वचन सुनकर प्रसन्न मन से धर्मबुद्धि बड़ों की आज्ञा लेकर अच्छी साइत में देशांतर की यात्रा पर निकल पड़ा। वहां घूमते हुए धर्मबुद्ध के प्रभाव से पापबुद्धि ने बहुत धन कमाया। बाद में बहुत धन मिलने से प्रसन्न होते हुए दोनों उत्साहपूर्वक अपने घर लौटने के लिए निकल पड़े । कहा है कि "देशांतर में रहने वालों को विद्या, धन और कला प्राप्त करने के बाद एक कोस जितनी दूरी सौ योजन जैसी हो जाती है ।" बाद में ये दोनों अपने स्थान के करीब आ पहुंचे । तब पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, "भद्र! यह सब धन घर ले जाने लायक नहीं है, क्योंकि परिवार वाले और रिश्तेदार इसे मांगने लगेंगे । इसलिए इस गहरे वन में कहीं धन को गाड़कर और थोड़ा-सा लेकर हमें घर चलना चाहिए । फिर जरूरत पड़ने पर हम इस जगह से धन ले जायंगे । कहा है कि "बुद्धिमान मनुष्य को थोड़ा सा भी धन किसी को दिखलाना नहीं
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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