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________________ मित्र-भेद अपने देश की हार और कुल का क्षय नहीं देखता।" यह सुनकर प्रत्युत्पन्नमति बोला, "आपने ठीक कहा । मुझे भी यह बात मंजूर है, इसलिए हमें दूसरी जगह चले जाना चाहिए । कहा है कि . “परदेश जाने से डरने वाले कपटी, नपुंसक, कौए, पागल और मृग अपने ही देश में मरते हैं। "जो सब जगह जा सकता है वह आदमी अपने स्वदेश-प्रेम से क्यों नष्ट हो। 'यह तो मेरे बाप का कुंआ है' यह कह कर उसका खारा पानी केवल कापुरुष ही पीते हैं।" यह सुनकर जोरों से हंसता हुआ यद्भविश्य बोला, "आपने यह ठीक बात नहीं कही, केवल मछलीमारों की बात से ही अपने बाप दादों का यह तालाब छोड़ देना ठीक नहीं। अगर हमारी जिन्दगी पूरी हो गयी है तो दूसरी जगह जाने पर भी मरना ही पड़ेगा। कहा है कि "अरक्षित भी अगर दैव से रक्षित है तो वह बचता है ; और सुरक्षित भी भाग्य का मारा हुआ है तो उसका नाश होता है । वन में छोड़ा हुआ अनाथ भी जीवित रहता है , और घर में यत्नपूर्वक रक्षित का भी नाश हो जाता है। इसलिए मैं तो नहीं जाऊँगा । आप लोगों को जैसा सूझे, कीजिये।" उसका यह निश्चय जानकर अनागत-विधाता और प्रत्युत्पन्नमति अपने परिवारों के साथ चले गये। सबेरे उन मछलीमारों ने जालों से तालाब को हिंडोरकर यद्भविष्य के साथ ही साथ उस तालाब को बिना मछलियों का बना दिया। ___ इसलिए मैं कहती हूं कि 'संकट आने के पहले उपाय करने वाला और संकट आने के समयानुसार उसका उपाय करने वाला, इन दोनों को सुख मिलता है । पर भाग्य के ऊपर भरोसा करने वाले का नाश होता है।' ___ यह सुनकर टिटिहरे ने कहा, "क्या तू मुझे यद्भविष्य की तरह मानती है ? देख मेरी बुद्धि का प्रभाव जिससे मैं इस दुष्ट समुद्र को सुखा दूंगा।"टिटि
SR No.009943
Book TitlePanchatantra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishnusharma, Motichandra
PublisherRajkamal Prakashan
Publication Year
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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