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________________ उल्लंघन नही कर सकता, और फिर विचारक ज्ञानियों की तो बात ही क्या? क्योकि वे निष्प्रयोजन व निरर्थक बात कहते ही नही। यदि वास्तव मे कल्याण की इच्छा है, यदि वास्तव मे अनेकान्त का रूप देखना चाहता है, यदि वीतरागियों के अभिप्राय को समझना चाहता है तो पक्षपात व लोकेषणा की खाई से बाहर निकल और देख विश्व कितना बड़ा है । दूसरे का निषेध करने की बजाय अपनी एकान्त बुद्धि का निषेध कर । और इस प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ आद्योपान्त पढ़ इस 'नय दर्पण' शास्त्र को, एक बार नही कई बार । इसमे अनेको मूलधारणाओं व अभिप्रायों का परिचय 'नय' के नाम से दिया गया है। उनके अतिरिक्त भी अनन्तों धारणाये व अभिप्राय सम्भव है। उन सबके झगड़े को दूर करके उनमे परस्पर मैत्री । उत्पन्न करना ही इसका फल है । जिन वीतरागी गुरुओं के परम प्रसाद से यह अमूल्य निधि मुझे प्राप्त हुई है, मै उनके चरणाम्बुजो की गन्ध का लोलुप हो उन्ही म लीन हो जाना चाहता हूँ। सेठ श्री राजकुमारसिंहजी ने जिन उत्तम भावनाओं से इस ग्रन्थ को अर्थ योग दिया है वह उनको कल्याण दायक हो । ब्र० श्री बाबूलालजी को इसके प्रकाशन मे अनथक परिश्रम करना पड़ा है, प्रभु उनको इसका यथार्थ फल प्रदान करे । इसके अतिरिक्त भी जिन जिन महानुभाव ने इसमे सहयोग दिया है वे सब श्रेयससिद्धिपूर्वक नि.श्रेयस लाभ प्राप्त करे । स्याहाद जैसे गम्भीर व जटिल न्याय का प्ररूपण करना मुझ जैसे बुद्धिहीन बालक के लिये ऐसा ही है जैसा कि मेढक द्वारा भगवान का -गुणानुवाद किया जाना । फिर चहु ओर प्रसारित एकान्त की अटूट झडपो से पीडित हृदय के रुदन मे से यह जो कुछ स्वत प्रगट हो गया है वह सब गुरुओं का प्रताप है । इस ग्रन्थ को अधिक से अधिक प्रामाणिक बनाने के लिये हर बातकी पूष्टि मे आगम के अनेको प्रमाण उद्धृत किये गए है । फिर भी त्रुटिये होनी अवश्यम्भावी है, जिनके लिये विद्वज्जन मुझे क्षमा करे. और उनको यथायोग्य सुधार करके मुझे कृतार्थ करे । लेखक
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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