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________________ २ विशुद्ध अध्यात्म नय ७१४ ७. उपचरित व ग्रनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय अपि वास तो योsनुपचरिताख्यो नय सभवति यथा । त्रोवाद्या जीवस्य हि विवक्षिताज्येद बुद्धि भवाः । ५४६ | " अर्थ - उपचरित असत व्यवहार इस नाम से कहा जाने वाला नय इस प्रकार है, जैसे कि जीव के बुद्धि गम्य क्रोधादि औदयिक भावो की विवक्षा होती है । । ५४९ | और जो यह अनुपचरित असत इस नाम का वाच्य नय है वह इस प्रकार है जैसे कि जीव के अबुद्धिगम्य क्रोधादि भावों को जीव का कहना । ५४६ | २. प.ध. १३०९०६ । विश्येतत्परं केज्यिद्स तोपचारतः । राग व ज्ज्ञानमात्रास्ति सम्यक्त्वं तद्वदीरितम । ९०९ | अर्थ- कोई कोई आचार्य मात्र ऐसा विचार करके जिस प्रकार असद्भूत उपचार नय से ज्ञान को राग वाला कहत हैं। उसी प्रकार सम्यक्त्व को भी राग वाला कह देते है । ३ वृ द्र स 1६।१८ " कुमति कुश्रुत विभंगत्रये पुनरूपचरितासद्भूत व्यवहार ।” अर्थ -- कुमति कुश्रुत और विभग इन तीनो को ज्ञान कहना उपचरित सद्भूत व्यवहार है । क्रोधादि पर भावों को जीव का कहने के कारण असद्भूत है । स्थूल भावों को ग्रहण करने के कारण उपचार और सूक्ष्म भावो को ग्रहण करने के कारण अनुपचार है । भेद करने के कारण व्यवहार है | अतः 'उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय' यह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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