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________________ २०. विशुद्ध अध्यात्म नय ७१३ ७. उपचरित व अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय स्वर्ण की प्राप्ति कर सकता है, उसी प्रकार क्रोधादि भावों को अपने स्वभाव की अपेक्षा असत्य स्वीकार करके कोई व्यक्ति इनके लक्षण को त्याग कर सम्यग्दृष्टि हो सकता है । विभाव भाव को असत्य या असद्भ त समझे विना उन्हे कैसे त्यागे ? यही इस नय का प्रयोजन है, अर्थात 'कर्ता क्रिया' को छड़ा कर 'ज्ञान क्रिया' का आलम्बन कराना इस नय का प्रयोजन है। इस नय के भी पूर्ववत् उपचरित व अनुपचरित दो भेद हो जाते है, क्योकि यह क्रोधादि भाव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार के है । ७ उपचरित व स्थूल अध्यात्म पद्धति में अन्य द्रव्यों का अन्य अनुपरित द्रव्य के साथ कर्ता कर्म या स्वामित्व आदि असद्भत सम्बन्ध जोडना असद्भ त व्यवहार नय का विषय व्यवहार नय बताय गया है। परन्तु यहा पर एक ज्ञान मे ही स्व व पर भावो का विभाग करके जीव ज्ञान का क्रोधादि भावो के साथ कर्ता कर्म या स्वामित्व सम्बन्ध जोड़ना असद्भ त व्यवहार नय का विषय वताया गया है। वे क्रोधादि भाव दो प्रकार के अनुभव करने मे आते है-बुद्धि गोचर व अबुद्धि गोचर । तहा बुद्धि गोचर भाव तो स्थूल है अतः उसका ग्रहण करना तो स्थूल व्यवहार है या उपचरित है, और अबुद्धि गोचर भाव सूक्ष्म है, अत. उनका ग्रहण करना सूक्ष्म व्यवहार है या इपत् उपचार है । इसी से बुद्धि गोचर क्रोधादि रूप पर भावो को जीव का कहना उपचरित असद्ध त व्यवहार नय है और अबुद्धि गोचर उन्ही भावो को जीव का कहना अनपचरित असद्भ त व्यवहार है । १ प. ध । पू.। ५४६-५४६ उपचरितोऽसद्भ तो व्यवहारख्यो नय. स भवति यथा । क्रोधाद्या औदयिकाच्यितज्येद् वुद्धिजा विवक्षया स्यु. १५४९।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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