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________________ १९. व्यवहार नय ६६४ ४. व्यवहार नय के कारण व प्रयोजन नयों की परस्पर सापेक्षता का क्या अर्थ है यह बात अध्याय नं. ९ मे दर्शाई जा चुकी है । यहा व्यवहार नय का उपकार दर्शाने के लिये कुछ आगम वाक्यो का अनुवाद उद्धृत करता हू । I नय चक्र गद्य । पृ शका व्यवहार की असत्य कल्पना किस लिये करते हो (पृ. ३१) ? उत्तर - उस व्यवहार के विकल्पो से छटने तथा रत्नत्रय की सिद्धि के अर्थ (पृ. ३१) । स्वभाव से निरपेक्ष बुद्धि को मूढता कहते है, उस मूढता की निवृति के अर्थ (पृ. ५२) । असत् कल्पना की निवृत्ति के अर्थ (पृ. ५३ ) । व्यवहारत्व के भेदो को श्रद्धेय रूप से उपादेय समझने के अर्थ (पृ. ६८) । २. वृ. द्र. स । टी. । ४२ । १८३ “निश्चयेन स्वकीयशुद्धात्मद्रव्यं उपादेय: । शेषं च हेयमिति सक्षेपेण हेयोपादेय भेदेन द्विघा व्यवहार ज्ञानमिति ।" ( अर्थ - निश्चय से स्वकीय शुद्धात्म द्रव्य उपादेय है और शेष सब हेय है, इस प्रकार सक्षेप मे हेयोपादय रूप द्वैत ज्ञान को व्यवहार कहते है ) ३. भो . मा. प्र. । ७ । १७५ निश्चय के अंगीकार कराने को व्यवपृ. ३७० । १२ हार का उपदेश देते है । ४. पु सि उ. । ८ "व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्य तत्वैन ं भवति
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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