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________________ १९. व्यवहार नय ६६० ४. व्यवहार नय के कारण व प्रयोजन स्वामी है किसी अन्य वस्तु की नही, और स्वतंत्र रूप से प्रत्येक क्षण परिवर्तन पाती हुई अपनी पर्यायो की ही कर्ता है किसी दूसरी वस्तु की नही, और स्वतंत्र रूप से अपने स्वभाव द्वारा ही अपनी पर्यायो को उत्पन्न करती रहने के कारण अपनी ही उन पर्यायो की कारण है अन्य की नही । फिर भी लोक में अन्य द्रव्य का अन्य के साथ कर्ता कर्म, कार्य कारण या स्वामित्व सम्बन्ध जोड़ने की अनादि रूढि है, जो भले ही लौकिक व्यवहार की अपेक्षा या कर्म धारा की अपेक्षा सत्य व प्रयोजनीय हो पर पार लौकिक व्यवहार की अपेक्षा या ज्ञान धारा की अपेक्षा तो असत्य व अप्रयोजनीय ही है । अत. स्व मे भेद डालने के कारण तथा पृथक पदार्थों मे एकत्व स्थापित करने के कारण, दोनो ही कारणो से यह व्यवहार नय असत्यार्थ व अभूतार्थ है । इसी लिये ज्ञानी जनसंदा इसका आश्रय छोडने को कहते है । शान्ति मार्ग के अन्दर भी यह बाधक है क्योकि इसके आश्रय से राग व विकल्प उत्पन्न होते है । फिर भी यह सर्वथा हेय हो ऐसी बात नही । भले ही चारित्र की अपेक्षा यह हेय हो पर ज्ञान की अपेक्षा तो यह उपादेय ही है । क्योकि एक प्राथमिक अनिष्णात व्यक्ति को किसी भी अदृष्ट व अपरिचित वस्तु का परिचय इसकी सहायता के बिना कैसे दिया जा सकता है ? अभेद वस्तु तो शब्द गोचर नही, और समझने व समझाने का साधन एक मात्र शब्द है । वस्तु सामने हो तो चलो दिखाकर बिना बोले ही समझा दी जाये पर आत्मा जैसी अदृष्ट वस्तुको तो सर्वथा विना वोले वताया ही नही जा सकता । दृष्ट वस्तुको भी केवल देखकर ही पहिले पहिल समझा नही जा सकता, जैसे स्वर्ण को देखने मात्र से अथवा रेडियो मे पड़े तारों के जाल को देखने मात्र से क्या उसकी विशेषतायें या वनावट समझ मे आ सकती है ? अतः प्राथमिक अवस्था मे कोई भी पदार्थ, दृष्ट हो कि अदृष्ट, विना बताये समझौ या
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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