SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 681
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. व्यवहार नय ६५५ ३. व्यवहार नय सामान्य का लक्षण ऐसा है जैसे कि सत् रूप से गुण व गुणी मे अभेद होते हुए भी उनमे भेद करना । ३. गो. सा. जी. । मू । ५७२ । १०१६ "व्यवहारश्च विकल्पो भेदस्तथा पर्यायत्येकार्थः ।.... । ५७२।" (अर्थ-व्यवहार, विकल्प, भेद या पर्याय ये सब एकार्थ वाची है।) ४. वृ. न. च ।२६२ 'य: स्याभ्देदोपचार धर्भाणां करोति एक वस्तुनः । स व्यवहारो भणितः.... २६२ ।” अर्थ:- जो एक अखण्ड वस्तु के धर्मो का भेदोपचार करता है वह व्यवहार कहलाता है। ५. अन. ध. १।१०१।१०८ "काद्या वस्तुनो भिन्नायेन निश्चय सिद्धये । साध्यन्ते व्यवहारोऽसो.... ।१०२" अर्थ-निश्चय नय को सिद्ध करने के लिये जीवादिक पदार्थों मे कर्ता कर्मादि कारकों को जो मित्र रूप से बताने वाला है उसको व्यवहार नय कहते है। ६. द. पा.। २ । पं.। जयचन्द पृ.५।२५ "एक देश को प्रयोजन वश तै सर्वदेश कहना सो व्यवहार है।" ७. प. ध । पू.। ५६६ "व्यवहारः स यथा स्यात्सद्रव्यं ज्ञानवांश्च जीवो वा ।.... ।५९१” (अर्थ-व्यवहार तो ऐसा है जैसे कि द्रव्य सत् या जीव को ज्ञानवान कहना ।) ८. स सा । आ ।१६ । क. १७ "दर्शनज्ञानचारित्रेस्त्रिभिः परिण तत्वतः । एको पि त्रि स्वभावत्वाद व्यवहारेण मेचकः १७ ।"
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy