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________________ ___१६, व्यवहार नय ६५३ ३. व्यवहार नय सामान्य का लक्षण - जैसे . (१) कारण में कार्य का उपचार यथा दुख के कारण रूप हिसादि पापो को ही दुख कहना या प्राणो के कारण भूत धन व अन्न को ही प्राण कहना। (२) कार्य मे कारण का उपचार यथा घट के कारण से उत्पन्न होने वाले ज्ञान कार्य को ही घट ज्ञान कहना । (३) अल्प मे पूर्णता का उपचार जैसे अणुव्रत को ही महा व्रत कहना या अधिक घूमनेवाले व्यक्ति को सर्वगत कहना। (४) भावि मे भूत का उपचार जैसे कर्म क्षपणा के अभाव मे भी आठवे गुणस्थान में स्थित जीव को क्षपक कहना। तथा इसी प्रकार अन्य भी। ३. व्यवहार नय सामान्य का लक्षण इस प्रकार लोक मे एक द्रव्य में दूसरे द्रव्य का, एक गुण मे दूसरे गुण का, एक पर्याय मे दूसरी पर्याय का, एक जाति के द्रव्य गुण पर्यायो मे भिन्न जाति के द्रव्य गुण पर्यायो का परस्पर स्वामित्व सम्बन्ध या का कर्मादि सम्बन्ध जोड़कर आरोपण करने का व्यवहार प्रचलित 'है । यही उपचार व्यवहार नय का विषय है । वास्तव मे देखा जाये तो द्रव्य गुण पर्याय के एक रस रूप अखण्ड द्रव्य में “यह द्रव्य और यह उसका गुण या पर्याय, तथा यह द्रव्य या गुण कारण और यह पर्याय कार्य” ऐसा भेद करना युक्त नहीं है । एक ही अखण्ड पदार्थ मे किस को किस का स्वामी या किस को किसका कता कहे ? इसलिये एक पदार्थ मे भेद डालकर कथन करने को उपचार कहते है। और इसी प्रकार दो भिन्न पदार्थो
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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