SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 670
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६. व्यवहार नय १६. व्यवहार नय ६४४ २. उपचार के भेद २. उपचार के भेद न लक्षण का विशेष विस्तार आगम कथित निम्न उध्दरणो के द्वारा दर्शाने मे आया है। १. आ. प. । १६ । पृ. १२७. "असद्भतव्यवहार एवोपचार.।" अर्थ -असद्भत व्यवहार को ही उपचार कहते है यह उपचार निम्न नव प्रकार का है। २. प्रा० ५० १६ । १२७ “अन्यत्र प्रसिध्दस्य धर्मस्य अन्यत्र समारोपणम सद्भत व्यवहारः।" अर्थ –अन्यत्र प्रसिध्द धर्म को अन्यत्र समारोपण करके, कहना सो असद्भ त व्यवहार नय है। जैसे कर्म सहित जीव को मूर्तीके तथा जड' कहना अथवा कार्माण रूप परिणत पुद्रगल द्रव्य को चैतन्य या अमूर्तिक कहना । इसी का विशष विस्तार निम्न भेद प्रभेदो पर से जाना जा सकता ३ आ. प. ।१९। पृ १२७ "द्रव्ये द्रव्योपचारः, पर्याये पर्यायोपचारः, गुणे गुणोपचारः, द्रव्ये गुणोपचारः, द्रव्ये द्रव्योपचारः गुणे द्रव्योपचारः, गुणे पर्यायोपचारः, पर्याये द्रव्योपचारः पर्यायगुणोपचार इति नवविधोऽ सद्भत व्यवहार स्यार्थी द्रष्टव्य।" अर्थः--अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य मे, अन्य गुण का अन्य गुण मे, अन्य पर्याय का अन्य पर्याय मे, अथवा द्रव्य का गुण मे, द्रव्य का पर्याय मे, गुण का द्रव्य मे, गुण का पर्याय मे, पर्याय का द्रव्य मे, पर्याय का गुण मे, इस प्रकार असद्भत __व्यवहार नय का विषय भूत यह उपचार नौ प्रकार है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy