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________________ १६. द्रव्यार्थिक नय सामान्य ५१० ११ भेद मापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय इस प्रकार प्रत्येक वस्तु मे पडे गुण व पर्याय रूप अंग वस्तु से पृथक किये जाने यद्यपि तीन काल मे भी सम्भव नही, पर ज्ञान की महिमा देखिये कि अपने अन्दर विश्लेपण करके, यह उन सर्व अगो या भेदो को पृथक पृथक भी यदि चाहे तो देख सकता है । और वस्तु की विशेपताओं को जानने के लिये ऐसा किया जाना अत्यन्त आवश्यक भी है। भले ही वह ज्ञान वस्तु के अनुरूप एक रस स्वरूप न रह जाये, पर उपरोक्त प्रयोजन वश ऐसा किया अवश्य जा सकता है, और किया जाता है । यद्यपि ऐसा करने से वस्तु दूपित हो जाती है पर इससे ज्ञान दूपित नहीं होता, क्योकि वहा भेदो की कल्पना करते समय भी अभेद सामान्य तत्वका चित्रण धुल नहीं पाया है। अत ये सवभेदोके विकल्प अभेद सापेक्ष ही रहते है । परन्तु क्योकि विचारणाओ का मुख्य आश्रय भेद है अभेद नही, अत. इस विकल्पको भेद सापेक्ष ही कहना होगा । यहां भेद के ग्रहण से तात्पर्य पृथक पथक गुणो आदि को ग्रहण करना न समझना, बल्कि सामान्य वस्तु के अन्दर देखते हुए ही समझना जैसे अग्नि मे ऊष्णता व प्रकाशकत्व आदि । इस प्रकार गुणा व पर्यायो से विशिष्ट वस्तु को देखना इस नय का विपय है । या यो कहलीजिये कि गुण पर्याय वाला द्रव्य को बताना इस नय का लक्षण है । इसका अन्तर्भाव शास्त्रीय व्यवहार नय मे होता है । · अब इसी लक्षण की पुष्टी व अभ्यास के अर्थ कुछ उद्धरण देखिये । १ वृ न च ।१९६ "भेदे सति सम्वन्धं गुणगुण्यादिभिः करोति यो द्रव्य । सोप्यशुद्धों दृष्ट सहितः स भेद कल्पनया ।१९६१" अर्थः- द्रव्य मे जो गुण गुणी आदि के द्वारा भेद करके उनमे सम्बन्ध स्थापित करता है वही भेद कल्पना सहित अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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