SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 534
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५०६ १०. भेद निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय १६ द्रव्यार्थिक नय सामान्य अर्थ:-- पर द्रव्यादि ग्राहक नय से वही वस्तु नास्ति स्वभाव वाली है । ३ आ. प ।७। पृ. ७२ “परद्रव्यादिग्राहकद्रव्यार्थिक को यथा परद्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया द्रव्यं नास्ति । " अर्थ - परद्रव्यादिग्राहक द्रव्यार्थिक नय को ऐसा जानो जैसे कि पर द्रव्यादि चतुष्टय 'की अपेक्षा द्रव्य को नास्ति कहना । पर चतुष्टय की अपेक्षा लेकर वस्तु का निरूपण करने के कारण यह नय पर चतुष्टय ग्राहक कहा जाता है । वस्तु का स्वरूप दर्शाते समय किसी भी प्रकार से पर पदार्थ का आश्रय लेना ही दृष्टि की अशुद्धता है, इसलिये यह नय अशुद्ध है । तथा चतुष्टयात्मक सामान्य वस्तु का स्वरूप दशनि के कारण द्रव्यार्थिक है । इस प्रकार " पर चतुष्टय ग्राहक अश ुद्ध द्रव्यार्थिक नय” ऐसा इसका नाम सार्थक है । " शरीरादि की अपेक्षा आत्मा नाम का कोई पदार्थ लोक मे नही है” या “शरीर के द्रव्य क्षेत्र काल भाव रूप चतुष्टयकी अपेक्षा आत्मा नास्ति स्वभाव वाला है" ऐसा कहना इस नय का उदाहरण है । अपरिचित व्यक्ति की दृष्टि से पर द्रव्य क्षेत्र काल भाव के अभिप्राय को निकालकर, वस्तु के स्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव मई हो उस वस्तु का स्पष्ट परिचय देना इस नय का प्रयोजन है । नय दशक के प्रथम युगल द्वारा वस्तु को स्वचतुष्टय के साथ १० भेद निरपेक्ष तन्मय रहने का नियम दर्शाया गया । अब शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उसी तन्मयता को अधिक विशद बनाने के लिये, विश्लेषण द्वारा उस चतुष्टय के तीन खण्ड कर लिये गये हैद्रव्य वक्षेत्र अर्थात प्रदेशात्मक द्रव्य, काल व भाव । इन तीनों खण्डों
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy