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________________ २. शब्द व ज्ञान सम्बन्ध २६ ५. वस्तु को खंडित करके प्रतिपादन करने की पद्धति विफल गया समझो। पक्षपात के सद्भाव मे तो ऐसा किया जाना श्रोता के द्वारा संभव ही नही है, क्योंकि उस स्थिति में तो वह केवल निषेध करना ही सीखा है ग्रहण करना नही । परन्तु यदि पक्षपात न भी हो तब भी यदि प्रमाद वश उपरोक्त सहयोग न दे तो काम चलने वाला नहीं है। वक्ता के वचन का कार्य आपके कर्ण प्रदेश पर जाकर समाप्त हो जाता है । इससे आगे वक्ता का कर्तव्य शेष नही रह जाता बल्कि श्रोता का कर्तव्य रह जाता है। इसी प्रकार बारी बारी आगे पोछे अपने अन्दर के उन सर्व खंडों को श्रोता के हृदय पट तक पहुँचाना पडेगा । जव सारे खंड श्रोता के हृदय देश मे उतर जाये तब श्रोता को कहा जायेगा कि भाई ! अब इन सब को यथास्थान जड दे, और फिर देख उस पूरे के पूरे पदार्थ को एक दम । बस यह है उस पदार्थ का चित्रण जो मेरे अन्दर पड़ा है। ____ उपरोक्त दृष्टातवत् यहां भी यह नियम नही है कि मै अमुक ही अग या खड की बात पहिले कहूँ और अमुक की पीछे। मेरी, अपनी इच्छा से मै श्रोता के जीवन या अभिप्राय को पढ कर उसमे दिखने वाली कमियो की पूर्ति के अर्थ, जिस किसी भी खड या अंग-को पहिले या पीछे कह सकता हूँ। इस कथन का क्रम मेरी इच्छा पर है, नियमित नहीं। नियमित यह अवश्य है कि मै क्रम - से, जिस प्रकार भी, पृथक पृथक , वे सम्पूर्ण अग, आपके अनुमान तक पहुंचा दू। और आपका भी . यह कर्त्तव्य अवश्य है, कि जब तक सम्पूर्ण अंग सुनकर निर्णय न कर लिया जाये उस समय तक , धैर्य पूर्वक सुनते चले जाये, बिना इस बात की उतावल किये, कि.मै वह अंग अभी तक क्यो नही कह पाया, जो ., कि पहले से आपकी धारणा. मे पड़ा हुआ है। कथन क्रम मे यथासमय वह अग भी अवश्य कहा जायगा ऐसा विश्वास. रखिए, और क्षोभ उन्पन्न न होने दीजिये। बजाय मेरे ज्ञान की कमी को देखने
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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