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________________ १५ शब्दादि तीन नय ४३४ १० एवभूत नय का लक्षण ___ इतना ही नही एक असयुक्त स्वतत्र शब्द या पद भी वास्तव मे कोई वस्तु नहीं, क्योकि वह भी 'घ,' 'ट' आदि अनेको वर्णों को मिलाने से उत्पन्न होते है । दो वर्गों को मिलाने में तो आगे पीछे का क्रम पड़ता है, जैसे 'घट' शब्द में 'ध' पहिले बोला गया और 'ट' पीछे। जो दृष्टि केवल एक क्षण ग्राही है वहा यह आगे पीछे का क्रम कसे सम्भव हो सकता है । जब 'घ' बोला गया तब 'ट' नहीं बोला गया और जव 'ट' बोला गया तव 'घ' नहीं बोला गया । अतः 'घ' व 'ट' यह दोनो ही । वतत्र अर्थ के प्रतिपादक रहे आवे, इन का समास या सयोग करके अर्थ ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं। यह भी अभी दोप युक्त है, क्योकि यहा भी 'घ' इस वर्ण में 'घ' और 'अ' इन दो स्वतत्र वणो का सयोग पडा है । घ और अ मिल कर 'घ' वनता है । अतः 'घ' भी कोई चीज नही । 'घ' ओर 'अ' स्वतंत्र रूप से रहते हुए जो कुछ भी अपने रूप के वाचक होते है वही एवभूत नय का वाच्य है। सूक्ष्म से सूक्ष्मतर और वहा से भी सूक्ष्मतम दृष्टि मे प्रवेश करता हुआ यह नय इस प्रकार केवल एक असयुक्त वर्ण को ही वाचक मानता है । यहा शका की जा सकती है, कि इस प्रकार तो वाच्य वाचक भाव का अभाव हो जायेगा, और ऐसा हो जाने पर लोक व्यवहार का तो लोप हो ही जायेगा, परन्तु एवभूत नय का भी लोप हो जायेगा, क्योकि वह नय गूगा वत् वन कर रहने के कारण स्वय अपना भी प्रतिपादन करने में समर्थ न हो सकेगा। और ऐसी अवस्था मे वह नय नाम मात्र को ही 'नय कहलायेगा, परन्तु उस का स्वरूप कुछ न कहा जा सकेगा। इस शका का उत्तर कपाय पाहुड़ पुस्तक १ पृष्ठ २४३ पर निम्न प्रकार दिया है। ___क. पा.।१।पृ२४३ उत्तर.-यह कोई दोप नही है, क्योकि यहा पर एवंभूत नय का विषय दिखलाया गया है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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