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________________ १५. शब्दादि तीन नय ४०३ ६ शब्द नय का लक्षण वह निभिक रूप से व्याकरण मान्य सर्व अपवादो का जोर से निषेध करती है । यही शब्द नय का मुख्य व्यापार है। पदार्थ या व्युत्पत्ति अर्थ की अपेक्षा रखे बिना केवल शब्द मात्र के आधार पर जो वाच्य पदार्थ का परिचय दे, उसे शब्द नय कहते है, जैसे अग्नि शब्द का उच्चारण करने मात्र से अग्नि पदार्थ का ग्रहण हो जाता है, भले ही अग्नि सामने हो या न हो। __ यह शब्द अनेक प्रकार के होते है-भेद,ग्राही व अभेद ग्राही, स्त्रीलिगी, पुरुपलिगी नपुसकलिगी, एक वचन, द्विवचन, बहु वचन, कर्ता आदि छ. कारको के वाचक, भूतकाल वाची, वर्तमानकाल वात्री, भविष्यतकाल वाची, प्रथम पुरुप वाची, मध्यम पुरुष वाची, उत्तम पुरुष वाची, परस्मैपद रूप और आत्मनेपद रूप । इन सब प्रकार के शब्दों का परिचय पहिले प्रकरण न०४ व ५ मे दिया जा चुका है। लौकिक व्याकरण का अनुसरण करने वाला ऋजुसूत्र नय लिग संख्या आदि के व्यभिचारो को व्याकरण के नियमो के अपवाद रूप से स्वीकार कर लेता है, पर शब्द नय को वह सहन नहीं होते। अतः समान लिग व सख्या वाचक शब्दों को ही एकार्थ वाचक रूप से ग्रहण करता है । जिस प्रकार भिन्न स्वभावी पदार्थ भिन्न ही होते हैं, उनमें किसी प्रकार भी अभेद नही देखा जा सकता उसी प्रकार भिन्न लिंग आदि वाले शब्द भी भिन्न हो होने चाहिये, उनमे किसी प्रकार भी एकार्थता घटित नही हो सकती और इस प्रकार दारा, भार्या, कलत्र यह भिन्न लिग वाले तीन शब्द, अथवा नक्षत्र, पुनर्वसू, शतभिषज्ञ यह भिन्न सख्या वाचक तीन शब्द, और इसी प्रकार अन्य भी भिन्न स्वभाव वाची शब्द, भले ही व्यवहार मे या लौकिक व्याकरण मे एकार्थ वाची समझे जाये परन्तु शब्द नय इनको भिन्न अर्थ का वाचक समझता है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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