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________________ १५. शन्दादि तीन नय ४०० ५ व्यभिचार का अथ ३. काल व्यभिचार - १ धापु१।पृ८८।१४ “भविष्यत आदि काल के स्थान पर भूत ीद काल का प्रयोग करना कालव्यभिचार है । जैसे --- (i) "विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' अर्थात जिसने समस्त विश्व को देख लिया है ऐसा इसके पुत्र होगा । यहा पर विश्व का देखना भविष्यत काल का कार्य है, (क्योकि पुत्र उत्पन्न होने के पश्चात तपश्चरणादि द्वारा सर्वज बनेगा) परन्त उसका भूतकाल के प्रयोग द्वारा कथन किया गया है । इसलिये यहा पर भविष्यत काल का कार्य भूत काल मे कहने से काल व्यभिचार है । (ii) इसी तरह ‘भावीकृत्यमासीत्' अर्थात आगे होने वालाकार्य हो चुका । यहा पर भी भविष्यत काल के स्थान पर भूतकाल का कथन करने से कालव्यभिचार है।" (रा. वा. १।३३।६।१८।२१), (त. सि ।१।३३।५२२), (क० पा० ।पु० १।१०।२३६), ३० पु० ६।पृ. १७७) ४. कारक या साधन व्यभिचार-- १ ध पु॥१।पृ ८८।२० "एक साधन अर्थात एक कारक (या विभक्ति ) के स्थान पर दूसरे कारक के आयोग करने को साधन व्यभि चार कहते है। जैसे - 'ग्राममधिशेते' वह ग्राम मे शयन करता है। यहा पर सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग किया गया है। इसलिये यह साधन व्यभिचार है।" (स. सि ।१।३३।५१८) क पा. पु. १।पृ. २३७), (ध. पु. ६।पृ.१७८)
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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