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________________ १५. शब्दादि तीन नय ३८६ ३. तीनो मे उत्तरोत्तर सूक्ष्मता की मुख्यता है, इसलिये इनका विषय ऋजुसूत्र से सुक्ष्म सुक्ष्मतर और सुक्ष्मतम माना गया है । इसका कारण यह है कि पूर्व पूर्व नय आगे आगे के नय का हेतु है पूर्व पूर्व विरुद्ध महा विषय वाला और उत्तरोत्तर अल्प अनुकूल विषय वाला है। द्रव्य की अनन्त शक्ति है, इसलिये प्रत्येक शक्ति की अपेक्षा भेद को प्राप्त होकर ये अनेक विकल्प वाले हो जाते है । अर्थात पहिले नय ने जितना पदार्थ विषय कर रखा है उतने पदार्थ को आगे का नय विषय नही करता और आगे का नय जिसे विषय करता है वह विषय पहिले नय मे भी गभित है । जैसे: ऋजुसूत्र नय शब्द के लिंग संख्या आदि का भेद न करके वर्तमान पर्याय का प्रतिपादन करता है, परन्तु शब्द नय उस एक पर्याय में लिग सख्या आदि के भेद से अर्थ का भेद प्रकाशन करता है । अर्थात ऋजुसूत्र नय पदार्थ की पर्याय और शब्द पर्याय सभी को विषय करता है परन्तु शब्द नय केवल शब्द पर्याय को ही विषय करता है। इसलिये शब्द नय से ऋजुसूत्रनय का विषय अधिक है । शब्दनय लिंग सख्या आदि के भेद से ही उस शब्द के अर्थ मे भेद मानता है, समान लिंगादि वाले पर्याय वाची शब्दों में अर्थ भेद नही मानता जब कि समभिरूढ नय इन्द्र शक पुरन्दर आदि समान लिगी पर्याय वाची शब्दों को भी व्युत्पति की अपेक्षा भिन्न रूप से जानता है। शब्द नय मे अर्थ एक ही रहता है और उसके पर्याय स्वरूप शब्द अनेक होते है । समभिरूढ नय मे यद्यपि एवभूत नय वत शब्द को प्रवृति का कारण नही माना जाता, परन्तु एक शब्द के अनेको अर्थों को छोडकर यह एक ही प्रसिद्ध अर्थ ग्रहण करता है । अतएव शन्द नय से समभिरूढ नय का विषय अल्प है। समभिरूढ नय सोना बैठना आदि अनेक क्रिया यक्त पदार्थ को एक नाम से घोषित करता है, जब कि एवभूत नय जिस काल मे जो
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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