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________________ ३४६ १४. ऋजु सूत्र नय अर्थ:-- इस नय की दृष्टि में कुम्भकार ( अर्थात कर्ता ) सज्ञा भी नही दी जा सकती है । उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है कि शिवक आदि पर्यायों को करने से उनके कर्ता को 'कुम्भकार' यह संज्ञा तो नही दी जा सकती, क्योकि कुम्भ से पहिले होने वाली शिविकादि पर्यायो मे कुम्भ पना नही पाया जाता । ( अर्थात जिस समय शिवकादि की सत्ता थी तब तो कुम्भ उत्पन्न नही हुआ था और जब कुम्भ उत्पन्न हुआ है तब शिवकादि का अभाव हो गया है) । २. ऋजु सूत्र नय सामान्य के लक्षण ( कोई यह कहे कि कुम्भ पर्याय को करते समय उसे कुम्भकार कहा जा सकता है तो ऐसा भी नही है ) कुम्भ पर्याय को करते समय भी कुम्भकार नही कह सकते, क्योकि कुम्भ पर्याय की उत्पत्ति तो अपने अवयवो से ही हुई है, कुम्भकार से नही । ( क. पा. 1१।१८६ | २२५1१ ) ( ध 1819७३।६ ) २. घाε।पृ. १७४।७ " न चास्य नयस्य सामानाधिकरण्यमप्यस्ति, एकस्य पर्यायेभ्य अनन्यत्वात् "" अर्थ - इस नय की दृष्टि मे सामानाधिकरण्य (एक आधार में समान रूप से रहना) भी नही है, क्योकि, एक द्रव्य पर्याय से भिन्न नही है । ८८ पृ. ३ ध | प्. १७५।२ किचन विनाशोऽन्यतो जायते, तस्य जाति हेतुत्वात् ।" न च भाव अभावस्य हेतु ।” अर्थः- इस नय की अपेक्षा विनाश किसी अन्य पदार्थ के निमित्त से नही होता, क्योकि उसका हेतु उत्पत्ति ही है | भाव (स्वयं) अभाव का हेतु नही हो सकता ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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