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________________ १३ संग्रह व व्यवहार नय ३३२ . ६ सग्रह व व्यवहार नय समन्वय अन्तिम भेद सूक्ष्म समय है और भाव का अन्तिम भेद भेद गुणाश या अविभाग प्रतिच्छेद है। द्रव्यादि चतुष्टय के इन चारों अन्तिम भेद तक पदार्थ को विभाजित कर देने के पश्चात व्यवहार नय थक जाता है, और सग्रह नय भी, क्योकि अब इन अन्तिम भेदों को पृथक पृथक किसी अद्वैत तत्व के रूप मे ग्रहण करने को संग्रह नय के लिये कोई अवकाश नही रह गया है । जब तक सग्रह नय के द्वारा अद्वैत रूप में ग्रहण न कर लिया जाये तब तक व्यवहार नय द्वैत किस में उत्पन्न करे । अतः इन पृथक पृथक परमाण आदि अन्तिम भेदो मे भेद करने का व्यापार व्यवहार नय कर नही सकता । ___इन अन्तिम भेदों को सग्रह नय पृथक पृथक अवान्तर सत्ता रूप से क्यो ग्रहण नही कर लेता, इसका उत्तर यही है कि द्वैत होने पर ही अद्वैत की कल्पना हो सकती है। जिन भेदो मे द्वैत किया जाना ही असम्भव है, उन मे अद्वैत का ग्रहण भी असम्भव है। ५ शंका-व्यवहार तो असत्यार्थ है । यह सर्व भेद प्रभेद तो भ्रम मात्र है । एक अद्वैत सत् ही कहना ठीक है। अत. इस व्यवहार नय की क्या आवश्यकता ? उत्तरः-भाई तेरी शका ठीक है । पर यह तो विचार कि भेदो से सर्वथा निरपेक्ष वह अद्वैत सत् तुझे किमात्मक, कहा व कितने समय के लिये दिखाई देगा । अर्थात द्रव्य क्षेत्र काल व भाव चतुष्टय से सर्वथा निरपेक्ष तो कोई वस्तु हो ही नही सकती । सत् के लक्षण मे भी तू इनका आश्रय लेकर ही उसे एक, व्यापक, नित्य व स्वलक्षणभूत तत्व कह रहा है। पहिला तो यही भेद चतुष्टय स्वय तुझ दिखाई दे रहा है । क्योंकि यहां एक कहने में द्रव्य,
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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