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________________ १३. सग्रह व व्यवहार नय ३१७ २. सग्रह नय विषेश सत्ताभुत पदार्थों मे अद्वैत दर्शाना इस नय का विषय है। जैसे कि "गाय एक पशु है" ऐसा कहने से सर्व ही प्रकार की सर्व ही गायों का, गाय की जाति सामान्य मे संग्रह करके, उसे एक कह दिया जाता है । अब इसकी पुष्टि के लिये कुछ आगमोक्त उध्दरण देखिये: १. वृ. न च ।२०६ "भवति स एव अशुध्द एक जाति विशेष ग्रहणेन ।' -अर्थ-वही शुध्द संग्रह का विषय अशुध्द सग्रह का बन जाता है जब कि उसके द्वारा ग्रहण किये गये एक अद्वैत सत् मे अवान्तर सत्ताभूत पृथक पृथक एक एक जाति विशेष की अद्वैतता को ग्रहण किया जाता है। . २. प्रा. प.६। पृ. ७७ "विशेष सग्रहो, यथा-सर्वे जीवा परस्परम विरोधिनः" अर्थ:-विशेष सग्रह नय को ऐसा जानो जैसे कि सर्व जीव पर स्पर मे अविरोधी अर्थात एक है" ऐसा कहना । ३. स.म ।२८।३१७११० "द्रव्यत्वादीनि अवान्तर सामान्यानि मन्वानस्तद्भेदेषु गजनिमीलिकामवलम्बमान. पुनरपर संग्रह । धर्माधर्माकाशकालपुद्गल जीवद्रव्याणामैक्यं द्रव्यत्वाऽभेदात् इत्यादिर्यथा ।" .. अर्थ --द्रव्यत्व पर्यात्व आदि अवान्तर सामान्यो को मानकर उनके भेदों में मध्यस्थ भाव रखना अपर या अशुद्ध संग्रह नय है । जैसे द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्म, अधर्म, - - . आकाश, काल पुद्गल, और जीव एक एक है ।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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