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________________ १३. सग्रह व व्यवहार नय ३०४ १. महा सत्ता व ग्रवान्तर सत्ता दो रूप है - महासत्ता व अवान्तर सत्ता । इन दोनों के दो रूप हैसामान्य व विशेष । एक विश्वव्यापी नित्य सत्ता तो महा सत्ता सामान्य है और अवान्तर सत्ता इसके विशेष है । इसी बात का विस्तार आगे किया जाता है । अपने अनेक अवान्तर भेदों से अनुगत यह सत् विश्व के रंगमंच पर नृत्य करता हुआ कैसे कैसे रूप धारण करके सामने आता है, और जगत के दर्शको को आश्चर्य अथवा धोके मे डाल देता है, और वे कि कर्त्तव्यविमूढ से खडे उसके उन रूपों को पहिचानने में असमर्थ यही जानने नही पाते, कि वास्तव मे इन सर्व रूपों के पीछे छुपा हुआ था कोन ? ज्योही उन रूपो मे उलझकर वे उस रूप विशिष्ट सत् से प्रेम करने लगते है, त्योही वह अपना रूप बदल कर उनको रूला देता है । वे यह जान नही पाते कि जो विनष्ट हुआ है वह वास्तव मे सत् नही था, वल्कि सत् का एक क्षणिक रूप था । सत् तो अब भी जू का तू है । अत. सत् तथा उसके सर्व रूपों या भेदो का परिचय प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है, क्योकि ऐसा किये बिना यह नित्य का रोना व हंसना बन्द नही हो सकता । इसी प्रयोजन की सिद्धि यह संग्रह व व्यवहार नययुगल, सत् मे द्वैत व अद्वेत उत्पन्न करके करता है । 1 वस्तु का यदि कोई एक सामान्य लक्षण हो सकता है, तो वह सत् है, जो चेतन व अचेतन सर्व ही वस्तुओं में व्यापकर रहता है । अर्थात जो कुछ भी है, वह ही वस्तु है । वह सत् ही दो प्रकार से देखा जा सकता है - महा सत्ता के रूप में और अवान्तर सत्ता के रूप 1 मे । लोक मे चेतन व अचेतन अनेको पदार्थ है जो अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ताये रखते है, अर्थात वे सदा से है और सदा रहते रहेंगे । न उनको किसी ने कभी बनाया है और न ही उनका कभी विनाश 2 सम्भव है । यदि दृष्टि विशेष के द्वारा उन सर्व पदार्थों को पृथक
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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