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________________ १. पक्षपात व एकान्त १. पक्षपात का विष तो इस बात का है कि आपकी शरण मे आकर भी मैं अपनी उस भूल को पकड़ न सका । मैने आपकी कल्याणकारी वाणी को अनेकों ज्ञानी जनों के मुख से सुना, परन्तु सुनने व सीखने के लिये नहीं, बल्कि उपदेष्टा को सुनाने व सिखाने के लिये, उसके दोष निकालकर उसे परास्त करने व नीचा दिखाने के लिये। जो बात स्वयं मेरे कल्याण के लिये मुझे वताई जाती है, उसी मे में कुछ विरोध की झलक देखने लगा, वादवितडा व शास्त्रार्थ करने लगा, और आश्चर्य यह है कि इस वितंडा का नाम मैने रखा धर्म चर्चा, और इस प्रकार सदा हित मे से अहित, अमृत मे से विष, साम्यता मे से पक्ष-पोषण, विरागता मे से द्वेष, शाति मे से व्याकुलता ही पढता आया हूँ। धिक्कार हो इस मेरे पक्षपात को। प्रभु ! इस दुष्ट से मेरी रक्षा करे। ___अहितकारी लौकिक बातों मे, प्रतिदिन के व्यापारो मे तो कभी मैं इस प्रकार की भूल नहीं करता । वहां तो इस प्रकार की असहिष्णुता की झाकी मुझ मे प्रगट नही हो पाती । वहां तो मै बजाय अपना व्यापार दूसरों को सिखाने के सदा दूसरे का व्यापार सीखने व जानने का प्रयत्न करता रहता हूँ, अपनी बात को गुप्त रखकर दूसरे की बात को जिस किस प्रकार भी जानने की इच्छा करता रहता हूँ, पर यहां कल्याण मार्ग मे तो उल्टा ही क्रम हो गया है । यहां तो मै दूसरे की बात सुनने व सीखने की बजाय अपनी ही बात दूसरों को सुनाने व सिखाने का प्रयत्न किया करता हूँ। वंहा तो कमाई को स्वयं ही भोगता था, किसी की नजर लगने तक से उसकी रक्षा किया करता था, परन्तु यहां अपनी जानी हुई बात को बिना प्रयोजन के भी मै सबको देना चाहता हूँ । लेने वाले की इच्छा हो या न हो, उस पर लाद देना चाहता हूँ। यह बात यदि कल्याण भावना से की होती तब तो अच्छा ही था, परन्तु ऊपर से कल्याण भावना मे रंगा वह मेरा परिश्रम अन्तरंग में देखने पर कुछ उल्टा-सा ही दीख पड़ता है। वहा दूसरे के कल्याण की भावना कहां है। वहां तो है केवल मेरा अहंकार व अभिमान, विद्वता का
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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