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________________ २१३ ११. शास्त्रीय नय सामान्य १. ज्ञान अर्थ व शब्द नय स्वयं अपने को भी वह स्वयं ही जान लेता है “मैं यह ज्ञान घट पट आदि पदार्थो को जान रहा हूं इस प्रकार की अनुभव गम्य प्रतीति सर्वजन सम्मत है । इस प्रतीति को उत्पन्न करने के लिये अन्य ज्ञान की आवश्यकता नही पड़ती। इसलिये सिद्ध हुआ कि ज्ञान जिस प्रकार अर्थ व शब्द को विषय करता है । उसी प्रकार स्वय अपने को अर्थात ज्ञान को भी विषय करता है । इस प्रकार ज्ञान तीन प्रकार की वस्तुओं को ग्रहण करने के कारण तीन प्रकार का बन जाता है-ज्ञान नय, अर्थ नय और शब्द नय । फिर भी यहा यह शंका हो सकती है कि ज्ञानात्मक वस्तु को भी शब्दो द्वारा कह कर या लिखकर व्यक्त किया जाता है, अर्थात्मक वस्तु को भी शब्दो द्वारा कहकर या लिखकर व्यक्त किया जाता है और शब्दात्मक वस्तु तो स्वयं शब्दो रूप है । इस प्रकार जब तीनों नयों के विषयो को व्यक्ति एक शब्द द्वारा ही की जाती है, तब एक शब्द नय ही रही आओ, अन्य दो नय कहने की क्या आवश्यकता है । सो ऐसा कहना भी युक्त नही है। कारण कि यहा विषयो की शब्दों द्वारा व्यक्ति की अपेक्षा नही है बल्कि ज्ञान के प्रतिभास की अपेक्षा है । यह बात ठीक है कि कोई भी बात शब्द व्यवहार के बिना व्यक्त नहीं की जाती, परन्तु इस का यह अर्थ नही जो भी शब्द बोले जाये वे सब शब्दात्मक वस्तु को ही व्यक्त करते हों जिस प्रकार ज्ञानात्मक वस्तु को विषय करने वाला ज्ञान 'ज्ञान नय, है, उसी प्रकार ज्ञानात्मक वस्तु को वाच्य बनाने वाले शब्द व वाक्य भी 'ज्ञात नय, के कहे जायेगे । जिस प्रकार अर्थात्मक वस्तु को विषय करने वाला ज्ञान 'अर्थ नय, कहलाता है, उसी प्रकार अर्थात्मक वस्तु को वाच्य बनाने वाले शब्द व वाक्य भी 'अर्थ नय, के कहे जायेगे । जिस प्रकार शब्दात्मक वस्तु तो जानने वाले ज्ञान 'शब्द नय, उसी प्रकार शब्दात्मक वस्तु को अर्थात स्वय शब्दो को वाच्य बनाने वाले शब्द व वाक्य 'शब्द नय, कहे जायेगे । इस प्रकार सर्वत्र जानना, नही तो जब भी
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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