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________________ ७. आत्मा व उसके अंग - १३२ ८. पारिणामिक भाव सकता है कि पारिणामिक भाव किसे कहते हैं । वह शक्ति रूप होता है व्यक्ति रूप नही । 12 1 T 1 इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान गुण ले लीजिये । भलं ही आज उस की हीन व्यक्ति हो । हमे ज्ञान अत्यन्त अल्प प्रगट हो परन्तु इसके ज्ञान पने मे क्या कमी है । अर्थात हमारा हीन जानना भी जानना मात्र है और अर्हन्त प्रभू का पूर्ण जानना भी जानना मात्र है। निगो दिया मे भी जानन पनी वैसा ही है जैसा कि प्रभु मे । जानन 'पने में हीनाधिकता या शुद्धता अशुद्धता क्या ? वह तो जानन की जाति का एक भाव सामान्य है । वही ज्ञान का परिणामिक भाव समझिये । जो न कभी परका संयोग लेता है और न छोड़ता है । वह तो शक्ति मात्र है, पर को जानना तो व्यक्ति मे है । जानन भाव के लिय न कोई स्व है और न पर, वह तो जानना मात्र है । वह न कभी शुद्ध होता है न अशुद्ध वह तो त्रिकाली शुद्ध ही है । यहा शुद्ध का अर्थ ठीक ठीक प्रकार समझना । एक शुद्ध तो होता है अशुद्धि को दूर करक्रे उसे तो क्षायिक भाव कहते है । एक शुद्ध होता है निर्पेक्ष, जिसमे न अशुद्धि की अपेक्षा होती है और न शुद्धि की । शब्द एक है और इसमे प्रदर्शित भाव दो, अत. उलझना नही । आगे के प्रकरणों मे शुद्ध शब्द का प्रयोग बहुत करने में आयेगा, कही तो इस त्रिकाली शुद्ध के अर्थ मे और कही उस कृत्रिम शुद्ध के अर्थ मे । अत. वहा शुद्ध-शुद्ध मे विवेक बनाये रखना । क्षायिक शुद्ध को सापेक्ष और पारिणामिक शुद्ध को निर्पेक्ष ही समझते रहना । लेखन मे भाव दर्शाया जाना असम्भव है । अतः भाव वाची सज्ञा अर्थात् (Abstract Noun) पर से जो सामान्य भाव पकड़ मे आता है उसे ही आगम भाषा मे पारिणामिक भाव कहते है । क्योंकि यह किसी भी पदार्थ के संयोग व वियोग की अपेक्षा नही रखता अतः यह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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