SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७. आत्मा व उसक अग १२६ ६. शुद्धा शुद्धभाव परिचय लगी जो बराबर बढती गई, यहा तक कि क्रोध ससाप्त हो गया और उसका स्थान क्षमा ने ले लिया आप पूर्व वत शान्त हो गये। यह सब पहिले से लेकर इस अन्तिम तक के शुद्धाशुद्ध अंग कहलायेगे । इसी प्रकार सर्वत्र जानना ! यहा चारित्र सबधो शुद्धाशुद्ध भाब को मैं ने लौकिक दृष्टि से दृष्टान्त रूप मे समझाया है। आगम की अपेक्षा तो यह सब अशुद्ध भाव ही है । जब तक पारमार्थिक अन्तरंग शान्ति रूप क्षमा की रेखा हृदय मे प्रगटती नही तब तक की क्षमा आदि वास्तव मे अशुद्ध ही है। ज्ञान का पूर्ण अशुद्ध भाव पूर्ण अन्धकार रूप जिसमे कुछ भी जाना न जा सके, शुद्ध भाव है पूर्ण प्रकाश जिसमे समस्त विश्व जाना जा सके जैसे कि भगवान मे है, और शुद्धाशुद्ध भाव अधूरा प्रकाश जैसे हम सभो मे है । कुछ जानते है और कुछ नही जानते है। सो सब मे वरावर नही है । किसी में शुद्धता रूप प्रकाश का अश अधिक है और किसी मे अध कार अधिक है । जैसे कि यहां जो बात को पकड सकते है उनमे प्रकाश का अश अधिक है ओर जो बिल्कुल नहीं समझ पाते उनमे अधकार का अश अधिक है । - - चारित्र का पूर्ण शुद्ध भाव है पूर्ण वीतरागता जैसा कि अर्हन्त व सिद्ध भगवान मे है। इसका पूर्ण अशुद्ध भाव है विषयो मे पूर्ण रूपेण फसकर नित्य क्रोधादि भावों में उलझे रहना । क्रोध जाये तो मान आ बैठे और मान जाये तो माया । जैसा कि जन साधारण मे होता है। इसका शुद्धाशुद्ध भाव है राग मे रहते हुये भी वीतरागता का अभ्यास करने' रूप । जैसे कि गहस्थ में रहते हुये भी कुछ व्रतो को धारना व विषयो का कुछ त्याग करना । श्रद्धा का पूर्ण शुद्ध भाव है विवेक का निश्चलपना । लोकके सर्व कार्य करते हुए भी "मेरा मकान अमुक ही स्थान पर है, मेरा पुत्र
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy