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________________ ७. आत्मा व उसके अग १२५ ६. शुद्धा शुद्ध भाव परिचय तो असख्यातो कोटियो के हो सकेगे । एक तोला शुद्ध व शेष सर्व अशुद्ध का मिला हुआ भी शुद्धाशुद्ध है, आधा आधा मिला हुआ भी शुद्धाशुद्ध है, और एक तोला अशुद्ध और शेष सर्व शुद्ध मिला हुआ भी शुद्धाशुद्ध है । तथा इन के बीच में एक एक अंश शुद्ध का बढाते ये और साथ साथ एक एक अश अशुद्ध का घटाते हुये असख्यातों भेद शुद्धाशुद्धके हो जायेगे । जिसका अश अधिक होगा, घी उसी ओर कुछझुकता हुआ सा प्रतीति मे आयेगा । जैसा कि सुगन्धित व दुर्गन्धित दो पदार्थों को मिलाने पर यदि सुगन्धि का अश उसमे अधिक है तो सारा का सारा मिश्रण कुछ सुगधित सा प्रतीत होगा । जू जू सुगधिका अंश बढता जायेगा तू तू अधिक अधिक सुगधित प्रतीति मे आने लगेगा । दुर्गन्ध उतनी उतनी ही घटती जायेगी । इस मश्रण मे बढते बढते शुद्ध घी तो पूरा सेर हो जाये और घटते घटते अशुद्ध घी इसमे से बिल्कुल निकल जाये तो यह पुन. शुद्ध कहलाने लगेगा । उस इसी प्रकार आत्मा मे समझना । चारो गुणो की कुछ शुद्ध और अशुद्ध व्यक्तिये मिली हुई पड़ी हो, तब उसे उस उस गुण का शुद्धाशुद्ध भाव कहते है । जैसे चारित्र मे तीव्र कोध आ जाने पर तीव्र दाह प्रतीति मे आई सो तो पूर्ण अशुद्धता हुई । अव मेरे समझाने व सान्तवना देने पर कुछ समझ कर उस व्यक्ति पर ऐसा भाव प्रगट हुआ कि अच्छा, जो मर्जी में आवे कर मुझे क्या । तब तीव्र दाह कुछ हलकी सी हुई प्रतीत हुई। बस जितनी हलकी हुई उतनी क्षमा आ गई । यह पहिली स्थिति है, जो कि अभी क्षमा रूप दीखने नही पाई, क्योकि अभी भी इसमे क्रोधका अश अधिक है अतः क्रोध ही मुख्यत प्रतीति मे आ रहा है । आगे जाकर धीरे धीरे दाहमन्द पड़ती गई । समझिये क्षमा का अश बढता गया और क्रोध का अश उतना ही कम होता गया । आधम सूत आने पर आप पूर्ववत अपने काम मे लग गये, पर अन्दर मे थोडे थोड़े कुढ अभी भी रहे हो । आगे क्षमा और बढ़ी और क्रोध कुछ कम हुआ, तो कुछ शान्ति सी प्रतीत होने
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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