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________________ ७. आत्मा व उसके अग ११६ २ ज्ञान काल सम्बन्धी विलुप्त बातो को प्रति बिम्ब रूप से जान जाया करता है, और मनः पर्यय ज्ञान समक्ष आये हुये किसी भी प्राणी के मन में 'क्या विचार आ रहा था या आगे आयेगा' यह सब प्रत्यक्ष प्रतिबिम्ब रूप से जान जाया करता है। अवधि ज्ञान तो यथा योग्य रीति से गृहस्थों व साधुओ दोनों को हो सकना संभव है पर मनः पर्यय ज्ञान बड़े बडे तपस्वी योगियो को ही होना सभव है इसके अतिरिक्त एक और भी ज्ञान होता है जिसे केवलज्ञान' कहते है । यह सकल विश्व की वर्तमान काल सबधी भूतकाल सबधी व भविष्यत् काल संबधी सर्व दृष्ट व अदृष्ट बातो को प्रतिबिब वत् प्रत्यक्ष एक ही बार जानने में समर्थ है । यह ज्ञान आत्मा की पूण विकसित अवस्था है। जिसे सिद्ध अवस्था या निर्गुण अवस्था कहते है। इस प्रकार मति श्रुत अवधि मन. पर्यय व केवल ये पाचों ज्ञान की ही विशेष शक्तियां है। ये पाचो जिसमे से स्फुरायमान होते है या यों कहिये कि जिसके उपर नृत्य करते है, अर्थात कभी हीन रूप से और कभी अधिक रूप से प्रगट होते व विलीन होते रहते हैं, उस सामान्य शक्ति का नाम ही ज्ञान है। इसका काम तो जानना मात्र है । भले मति रूप से जाने, या श्रुत रूप से, अवधि रूप से या मनः पर्याय रूप से, या केवल रूप से- ये पाचों तो कभी या किसी आत्मा मे प्रगट दृष्ट होते है और कभी नही इस लिये क्षणिक या परिवर्तन शील अङ्ग है, पर्याय हैं । पर वह जानने की त्रिकाली शक्ति सो ज्ञान है । सो उसमे तो जानने की अनन्त शक्ति है, भले ही बर्तमान मे पूर्ण रूपेण प्रगट न दीखती हो । प्रगट मे दीखने वाली को व्यक्ति व अन्दर में छिपी हुई को शक्ति कहते है । जैसे यदि पूछ कि दीपक की लौ मे कितने पदार्थों का जला देनो की शक्ति है, तो आप यही कहेगे कि यदि सारा विश्व भी सामने आये तो उसे भी जलादे, और फिर भी न थके । परन्तु वर्तमान
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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