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________________ ६. द्रव्य सामान्य ८६ १. नयो को जानने का प्रयोजन, दृष्ट पदार्थों मे तो वह खेचातानी उत्पन्न होना संभव नही, क्योकि वहां तो वस्तु के सम्पूर्ण अंगों का यथा स्थान चित्रण रूप प्रमाण व अनुभव ज्ञान मौजूद है, जैसे कि अग्नि के सम्बन्ध मे मै आपसे चाहे कुछ भी कहू आप उसे सहज स्वीकार कर लेते है अग्नि को उष्ण कहूं तब भी स्वीकार कर लेते है और उसे कथचित् शीतल कहूं तब भी स्वीकार कर लेते है । इसे उपयोगी कहूं तब भी स्वीकार कर लेते है और इसे भयानक कहूं तो भी स्वीकार कर लेते है । वहा तो इसे उपयोगी सुनकर स्वतः आपकी दृष्टि भोजन पकाने व पढने आदि कार्यों मे नित्य सहायक बनने रूप से इसके अनेक उपयोगी अंगों पर, पड़ जाती है। और भयानक सुनकर स्वतः इसके उस प्रचण्ड रुद्र रूप पर पड जाती है, जिसमे कि बड़े बड़े नगर तक क्षणभर मे भस्म होकर राख के ढेर बन गये है । वहां तो आपको संशय व शंका नही होती कि “वाहज़ी | आप इसे भयानक कसे कहते है । इस प्रश्न को स्पष्ट करने के लिए आपको किसी भी चर्चा की आवश्यकता नहीं पड़ती। हाथ पर रखे आमले वत् मानो वे सारी बाते आपके हृदय की बाते ही हों। कारण यही है कि अग्नि का अनेकागी पूर्ण चित्रण आपके हृदय पट पर स्पष्ट है । आग के सम्पूर्ण अंग आपको यथा स्थान जड़े हए स्पष्ट दिखाई दे रहे है । जिस भी अग की बात आई और आपने उसे यथा स्थान फिर बैठा ली। इसी को मै ज्ञान की सरलता कहता हूं। परन्तु यह बात अदृष्ट जो यह अध्यात्म विषय इसके सबंध में देखने मे नही आती । इस विषय की अनेकों उलटी सीधी बाते सामने आने पर आपको विरोध भासने लगता है । अपनी रुचि की वातको आप सरलतासे स्वीकार कर लेते है, परन्तु उससे विपरीत बात आपके चित्त मे एक बौखलाहट सी उत्पन्न कर देती है । जैसे कि जब मै यह कहूं कि भगवान वीर पूर्णरूपेण धर्म की मूर्ति हैं. । तब तो आप प्रसन्नता व सरलता पूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, पर जब यह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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